ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 1/ मन्त्र 22
ऋषिः - मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
शेवा॑रे॒ वार्या॑ पु॒रु दे॒वो मर्ता॑य दा॒शुषे॑ । स सु॑न्व॒ते च॑ स्तुव॒ते च॑ रासते वि॒श्वगू॑र्तो अरिष्टु॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठशेवा॑रे । वार्या॑ । पु॒रु । दे॒वः । मर्ता॑य । दा॒शुषे॑ । सः । सु॒न्व॒ते । च॒ । स्तु॒व॒ते । च॒ । रा॒स॒ते॒ । वि॒श्वऽगू॑र्तः । अ॒रि॒ऽस्तु॒तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
शेवारे वार्या पुरु देवो मर्ताय दाशुषे । स सुन्वते च स्तुवते च रासते विश्वगूर्तो अरिष्टुतः ॥
स्वर रहित पद पाठशेवारे । वार्या । पुरु । देवः । मर्ताय । दाशुषे । सः । सुन्वते । च । स्तुवते । च । रासते । विश्वऽगूर्तः । अरिऽस्तुतः ॥ ८.१.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 22
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ परार्थं प्रार्थयितुः फलं कथ्यते।
पदार्थः
(शेवारे) सुखप्रदे यज्ञे (देवः) दिव्यः (विश्वगूर्तः) विश्वेषु कार्येषु प्रवृत्तः (सः) स परमात्मा (अरिस्तुतः) प्रत्येकाभ्यां स्तुतः सन् यस्तत्र (दाशुषे, मर्ताय) उपकारिजनस्तस्मै (सुन्वते, च, स्तुवते, च) यज्ञं स्तुतिं च कुर्वते (पुरु, वार्या) बहूनि याचनीयानि द्रव्याणि (रासते) ददाति ॥२२॥
विषयः
कर्माण्यपेक्ष्य स हि परमात्मा सर्वेषां फलदातास्तीति शिक्षते ।
पदार्थः
देवः=इन्द्रः । शेवारे=शेवं सुखं तस्य । अरे=गमके सुखनिमित्ते शुभकर्मणि उपस्थिते सति । दाशुषे=दत्तवते कृतभूरिदानाय कर्माणि कुर्वते च । मर्ताय=मर्त्याय=मनुष्याय । पुरु=पुरूणि=बहूनि । वार्या=वार्य्याणि कमनीयानि धनानि । रासते=ददाति । च=पुनः । सुन्वते=जगद्धिताय यागं कुर्वते । च=पुनः । स्तुवते=मा वयं पापिनोऽभूमेति परमात्मानं सदा प्रार्थयते जनाय । धनानि रासते=ददाति । कीदृशः सः । विश्वगूर्त्तः=विश्वेषां सर्वेषां गुरुः सर्वेषु कार्य्येषु उद्यतो वा । पुनः । अरिष्टुतः=अरिभिर्मनःप्रेरयितृभिर्योगिभिरपि । स्तुतः=प्रार्थितः ॥२२ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब परोपकारार्थ प्रार्थना करनेवाले को फल कथन करते हैं।
पदार्थ
(शेवारे) सुखप्रद यज्ञ में (देवः) दिव्यस्वरूप (विश्वगूर्तः) अखिल कार्यों में प्रवृत्त होता हुआ (सः) वह परमात्मा (अरिस्तुतः) जब उभयपक्षी पुरुषों से स्तुति किया जाता है, तो (दाशुषे, मर्ताय) जो उन दोनों में उपकारशील है, उसको (च) और (सुन्वते, च, स्तुवते) तत्सम्बन्धी यज्ञ करनेवाले स्तोता को (पुरु, वार्या) अनेक वरणीय पदार्थ (रासते) देता है ॥२२॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव यह है कि परमात्मा के उपासक दो प्रकार के होते हैं, एक स्वार्थपरायण होकर उपासना करनेवाले और दूसरे परार्थपरायण होकर उपासना करते हैं, इन दोनों प्रकार के उपासकों में से परमात्मा न्यायकारी तथा परोपकारार्थ प्रार्थना-उपासना करनेवाले को अवश्य फल देते हैं, इसलिये प्रत्येक पुरुष को परोपकारदृष्टि से परमात्मोपासन में प्रवृत्त रहना चाहिये ॥२२॥
विषय
कर्मों की अपेक्षा से वही परमात्मा सबको यथायोग्य फल देता है, इससे यह शिक्षा देते हैं ।
पदार्थ
(देवः) वह देव इन्द्र (शेवा१रे) सुखनिमित्त शुभकर्मों के फलोन्मुख होने पर (दाशुषे) दान देनेवाले और कर्म करनेवाले (मर्ताय) मनुष्य को (पुरु) बहुत (वार्य्या) वरणीय=कमनीय=प्रशंसनीय धनों को (रासते) देता है (च) और (सः) वह देव (सुन्वते) जगद्धित के लिये यज्ञ करते हुए भक्तजनों को (च) और (स्तुवते) हम पापी कुकर्मी न हो जायँ, अतः सर्वदा परमात्मा से प्रार्थना करते हुए ज्ञानीजन को रमणीय धन देता है । जो इन्द्र (विश्वगूर्त्तः) सबका गुरु या सर्व कार्य में उद्यत रहता है । और जो (अरिष्टु२तः) ध्यान द्वारा मन को शुभकर्मों की ओर लगानेवाले योगियों से भी प्रार्थित होता है ॥२२ ॥
भावार्थ
परमात्मा के दान प्रत्यक्ष हैं, उन्हें अल्पज्ञ मनुष्य नहीं देखते हैं । जिन अपूर्व वस्तुओं का भोग सम्राट् करता है, वे तुमको भी दी गई हैं, यह विचारो । यह वायु, यह नदीजल, यह मेघों की मनोहारिणी शोभा, ये कुसुमोद्यान, ये आराम, इस प्रकार की कितनी वस्तु तुम्हारे प्रमोद के लिये विद्यमान हैं, उन्हें सेवो । सुखी होवोगे ॥२२ ॥
टिप्पणी
१−अर्−ऋ धातु से बनता है । मर्त=लोक में मर्त्य शब्द का प्रयोग होता है । २−अरिष्टुत−लोक में अरि शब्द सदा शत्रुवाची रहता है, परन्तु वेद में यह शब्द अनेकार्थ और विशेषणरूप में आता है ॥२२ ॥
विषय
प्रभु से प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
( दाशुषे मर्त्ताय ) कर दानादि देने वाले मनुष्य के हितार्थ ( देवः ) दानशील राजा ( शेवारे ) सुख प्राप्त करने के निमित्त ( पुरुवार्या रासते ) बहुत २ उत्तम धन देता है । ( सः ) वह ( विश्व-गूर्त्तः ) सबसे प्रशंसित, और ( अरि-स्तुतः ) शत्रुओं से भी प्रशंसित होकर ( सुन्वते स्तुवते च ) स्तुति करने और ऐश्वर्य उत्पन्न करने वा अभिषेक करने वाले प्रजाजन के लिये भी ( रासते ) ऐश्वर्य प्रदान करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ३–२९ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ३० – ३३ आसङ्गः प्लायोगिः। ३४ शश्वत्याङ्गिरम्यासगस्य पत्नी ऋषिः॥ देवताः१—२९ इन्द्रः। ३०—३३ आसंगस्य दानस्तुतिः। ३४ आसंगः॥ छन्दः—१ उपरिष्टाद् बृहती। २ आर्षी भुरिग् बृहती। ३, ७, १०, १४, १८, २१ विराड् बृहती। ४ आर्षी स्वराड् बृहती। ५, ८, १५, १७, १९, २२, २५, ३१ निचृद् बृहती। ६, ९, ११, १२, २०, २४, २६, २७ आर्षी बृहती। १३ शङ्कुमती बृहती। १६, २३, ३०, ३२ आर्ची भुरिग्बृहती। २८ आसुरी। स्वराड् निचृद् बृहती। २९ बृहती। ३३ त्रिष्टुप्। ३४ विराट् त्रिष्टुप्॥ चतुत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
सुन्वन्-स्तुवन् [दाश्वान्]
पदार्थ
[१] (देवः) = वह सब कुछ देनेवाला प्रभु शेवारे [शेवं सुखं तस्य अरे गमके यज्ञे] सुख प्राप्त करानेवाले यज्ञों में (दाशुषे) = हविरूप से घृत आदि को देनेवाले मर्ताय मनुष्य के लिये (पुरु) = बहुत (वार्या) = वरणीय धनों को रासते देता है। वस्तुतः प्रभु यज्ञशील को सब काम्य पदार्थों को प्राप्त कराते हैं। यह यज्ञ ' कामधुक्' तो है ही। [२] (सः) = वह (विश्वगूर्तः) = सर्वत्र उद्यमवाले (अरिष्टुतः) = [ऋ गतौ ] गतिशील पुरुषों से स्तुति किये गये प्रभु (सुन्वते) = यज्ञशील (च) = और (स्तुवते) = स्तुति करनेवाले प्रभु के लिये सब आवश्यक वस्तुओं को देते ही हैं।
भावार्थ
भावार्थ- दानशील- यज्ञशील स्तोता के लिये प्रभु सब आवश्यक वस्तुओं को देते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
In the treasure hold of yajna, the self-refulgent lord universally adored keeps wealth and excellence of choice for the generous mortal which he, acknowledged and adored even by adversaries, gives to the celebrant and the worshipful lover of soma for homage to the lord.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्राचा भाव हा आहे, की परमेश्वराचे उपासक दोन प्रकारचे असतात. एक स्वार्थपरायण बनून उपासना करणारे व दुसरे परार्थपरायण बनून उपासना करणारे. या दोन्ही प्रकारच्या उपासना करणाऱ्यांमधून परमेश्वर न्यायी व परोपकारासाठी प्रार्थना उपासना करणाऱ्यांना अवश्य फळ देतो. त्यासाठी प्रत्येक पुरुषाला परोपकार दृष्टीने परमेश्वराच्या उपासनेत प्रवृत्त राहिले पाहिजे. ॥२२॥
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