ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 15
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदार्षीगायत्री
स्वरः - षड्जः
मा न॑ इन्द्र पीय॒त्नवे॒ मा शर्ध॑ते॒ परा॑ दाः । शिक्षा॑ शचीव॒: शची॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठमा । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । पी॒य॒त्नवे॑ । मा । शर्ध॑ते । परा॑ । दाः॒ । शिक्षा॑ । श॒ची॒ऽवः॒ । शची॑भिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा न इन्द्र पीयत्नवे मा शर्धते परा दाः । शिक्षा शचीव: शचीभिः ॥
स्वर रहित पद पाठमा । नः । इन्द्र । पीयत्नवे । मा । शर्धते । परा । दाः । शिक्षा । शचीऽवः । शचीभिः ॥ ८.२.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 15
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ कर्मयोगिनं प्रति जिज्ञासुप्रार्थना कथ्यते।
पदार्थः
(इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (नः) अस्मान् (पीयत्नवे) हिंसकाय (मा) न (परादाः) परिसमर्पय (शर्धते) साहयते (मा) न परादत्स्व (शचीवः) हे शक्तिमन् ! (शचीभिः) स्वशक्तिभिः (शिक्ष) न शाधि ॥१५॥
विषयः
भयं न देहीति प्रार्थयते ।
पदार्थः
हे इन्द्र=सर्वद्रष्टः ! नः=अस्मान् तवाधीनान् । पीयत्नवे=पीयतिर्वधकर्मा । हिंसकाय जनाय । मा परादाः=मा परित्याक्षीः । पुनः । शर्धते=अभिभवित्रे च । अस्मान् मा परादाः । शृधु प्रसहने । हे शचीवः=शचीवन् सर्वशक्तिकर्मपरायण देव ! शचीभिः=कर्मभिः । शिक्ष=शिक्षतिर्दानकर्मा कर्मभिः सह दानं देहि । अस्माकं कर्माणि सफलानि कुरु इत्यर्थः ॥१५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब कर्मयोगी के प्रति जिज्ञासु की प्रार्थना कथन करते हैं।
पदार्थ
(इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (नः) हमको (पीयत्नवे) हिंसक के लिये (मा) मत (परा, दाः) समर्पित करें (शर्धते) जो अत्यन्त दुःखदाता है, उसको मत दीजिये (शचीवः) हे शक्तिमन् ! (शचीभिः) अपनी शक्तियों द्वारा (शिक्ष) मेरा शासन कीजिये ॥१५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में जिज्ञासु की ओर से यह प्रार्थना कथन की गई है कि हे शासनकर्त्ता कर्मयोगिन् ! आप मुझको हिंसक तथा क्रूरकर्मी मनुष्य के वशीभूत न करें, जो अत्यन्त कष्ट भुगाता है। कृपा करके आप मुझको अपने ही शासन में रखकर मेरा जीवन उच्च बनावें, जिससे मैं परमात्मा की आज्ञापालन करता हुआ उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहूँ। स्मरण रहे कि मन्त्र में “शची” शब्द बुद्धि, कर्म तथा वाणी के अभिप्राय से आया है और वैदिककोश में इसके उक्त तीन ही अर्थ किये गये हैं अर्थात् “शची” शब्द यहाँ कर्मयोगी की शक्ति के लिये प्रयुक्त हुआ है, किसी व्यक्तिविशेष के लिये नहीं। पौराणिक भाष्यकारों ने “शची” शब्द कहीं-कहीं एक व्यक्तिविशेष इन्द्र की स्त्री के लिये प्रयुक्त किया है और व्यक्तिविशेष ही उन्होंने “इन्द्र” माना है, परन्तु यह भाव मन्त्र से नहीं निकलता। यह अर्वाचीन लोगों की कल्पित कल्पना है। जैसे भवानी, ब्रह्माणी, ब्रह्मा और शिव की स्त्रियाँ कल्पना करती हैं, इसी प्रकार यह कल्पना भी सर्वथा वेदबाह्य और अर्वाचीन है ॥१५॥
विषय
भय मत दो, इससे यह प्रार्थना करते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! सर्वदृष्टा परमात्मन् ! (पीयत्न१वे) हिंसाकारी मनुष्य के लिये (नः) हम सेवकों को (मा+परा+दाः) मत त्याग और (शर्धते२) चोरी, लूट और डकैती आदि दुष्कर्म करनेवाले के लिये भी तू हम जनों को (मा) मत त्याग । किन्तु (शचीवः) हे सर्वशक्तिमन् सर्वकर्मन् ! (शचीभिः) हमारे कर्मों के साथ (शिक्ष) दान दे अर्थात् हमारे कर्मों को सफल कर ॥१५ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! निष्प्रयोजन हिंसा से दूर रहो अन्यथा तुम भी हिंसा में पड़ोगे और शुभ कर्मों के द्वारा फल की आकाङ्क्षा करो ॥१५ ॥
टिप्पणी
१−पीयत्नु, वधिक, घातक यह एक ही वार ऋग्वेद में आया है । इस प्रकार की स्तुतियाँ बहुत आई हैं, यथा−मा नो मघेव निष्पपी परा दाः ॥ ऋ० १ । १०४ । ५ ॥ हे इन्द्र ! (इव) जैसे (निष्पपी) निर्गतेन्द्रिय यथेष्टाचारी स्त्रीकामी दासीपति जन (मघा) धनों को फेंकता है । तद्वत् (नः) हम उपासकजनों को (मा+परा+दाः) व्याधियों, चोरों, डाकुओं और अन्यायी प्रभृतियों के निकट मत फेंक । मा नो अकृते पुरुहूत योनाविन्द्र क्षुध्यद्भ्यो वय आसुतिं दाः ॥ ऋ० १ । १०४ । ७ ॥ हे (पुरुहूत) सर्वपूज्य इन्द्र ! (अकृते) धनपुत्रादिशून्य (योनौ) गृह में (नः) हमको (मा) मत रख । और (क्षुध्यद्भ्यः) भूखों को (वयः) अन्न और (आसुतिम्) दूध आदि पदार्थ (दाः) दे । मा नो अग्ने अव सृजो अघायाविष्यवे रिपवे दुच्छुनायै । मा दत्वते दशते मादते नो मा रिषते सहसावन् परादाः ॥ ऋ० १ । १८९ । ५ ॥ (अग्ने) हे अग्ने (नः) हमको (अघाय) पापी (अविष्यवे) घातक (दुच्छुनायै) दुःखकारी (रिपवे) शत्रु के लिये (मा+अव+सृज) मत त्याग । शत्रु के अधीन हमको न कर । (दत्वते) दाँतवाले (दशते) और काटनेवाले सर्पादिक के अधीन हमको (मा परादाः) मत कर । (अदते) अदन्त शृगालादि के वशीभूत (मा) मत कर (सहसावन्) हे संसारकारिन् तेजस्विन् देव ! (रिषते) महाहिंसक राक्षसादि के निकट (नः) हमको (मा+परादाः) मत फेंक । वेदों में अनेक प्रकार के उपदेश आते हैं, किन्तु वर्णन करने की शैली अतिविचित्र है । इस हेतु वेदार्थान्वेषी पुरुष को वर्णन की शैली पर अधिक ध्यान देना चाहिये । वेदों में बहुशः प्रार्थनाएँ आती हैं कि हिंसक के लिये हमको मत छोड़ । इससे भगवान् उपदेश देते हैं कि हे मनुष्यो ! तुम कदापि हिंसक मत बनो, इसी प्रकार जितने अपराध, पाप, दुष्कर्म, दुर्व्यसन, दुराचार, अत्याचार, अन्याय आदि दोष हैं, उनसे मनुष्य को सदा बचना उचित है ॥ २−शर्धत=अभिभवकारी=अनधिकारी । जहाँ पर जिसका अधिकार नहीं है, वहाँ भी अन्यायी पुरुष अपना अधिकार बलात्कार करना चाहता है । यदि प्रत्येक व्यक्ति अनधिकार चेष्टा न करे, तो संसार में दुःख बहुत न्यून हो जाय, किन्तु मनुष्य महास्वार्थी और अविवेकी हैं, अतः वे अपने को अन्याय से रोक नहीं सकते । तथा दुर्बल के ऊपर अन्याय करता हुआ बलिष्ठ अपने को न्यायी ठहराने के लिये विविध घृणित संहारकारी चेष्टाएँ किया करता है । इसी नियम के अनुसार यहाँ क्षत्रियदल अपने को सूर्य्यपुत्र वा अग्निपुत्र इत्यादि कहने लगे और ब्राह्मणदल परमात्मा का मुख ही बन गया या परमात्मा से भी कुछ ऊपर अपने को दिखलाने लगा । इसी कारण पौराणिक जगत् में वर्णित है कि जब भगवान् ही अपने वक्षःस्थल में ब्राह्मण के चरणचिह्न को धारण किए हुए हैं, तब मनुष्य की क्या गिनती है । इत्यादि वार्त्ताओं पर विद्वानों को बहुत विचार करना चाहिये । वेद भगवान् पदे पदे उपदेश देते हैं कि हे मनुष्यो ! तुम निर्भय और विवेकी बनो । तभी तुम्हारा कल्याण है ॥१५ ॥
विषय
प्रभु के प्रति भक्त की याचनाएं और कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! स्वामिन् ! तू ( नः ) हमें ( पीयत्नवे ) हिंसक, क्रूर पुरुष के लाभ के लिये ( मा परा दाः ) मत त्याग और ( शर्धते मा परा दाः ) हमें अपमानित करने वाले के लिये मत त्याग । हे ( शचीवः ) वाणी और शक्ति के स्वामिन् ! तू ( नः ) हमें ( शचीभिः ) शक्तियों और वाणियों से हिंसक और अपमानजनक पुरुष के दण्ड करने के लिये ( शिक्ष ) शिक्षा या बल दे । इत्येकोनविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः । ४१, ४२ मेधातिथिर्ऋषिः ॥ देवता:—१—४० इन्द्रः। ४१, ४२ विभिन्दोर्दानस्तुतिः॥ छन्दः –१– ३, ५, ६, ९, ११, १२, १४, १६—१८, २२, २७, २९, ३१, ३३, ३५, ३७, ३८, ३९ आर्षीं गायत्री। ४, १३, १५, १९—२१, २३, २४, २५, २६, ३०, ३२, ३६, ४२ आर्षीं निचृद्गायत्री। ७, ८, १०, ३४, ४० आर्षीं विराड् गायत्री। ४१ पादनिचृद् गायत्री। २८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
पीयत्नु व शर्धत्
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = शत्रु विद्रावक प्रभो ! (नः) = हमें (पीयत्नवे) = वधशील शत्रु के लिये (मा परा दा:) = मत दे डालिये इसी प्रकार (शर्धते) = हमें कुचल देनेवाले शत्रु के लिये (मा) = मत दे डालिये। शरीर को नष्ट करनेवाले रोग 'पीयनु' हैं। मन को अभिभूत कर लेनेवाले काम-क्रोध आदि शत्रु 'शर्धन् ' हैं। हम इनके वश में न हो जायें। [२] (हे शचीवः) = शक्तिमन् प्रभो ! (शचीभिः) = अपनी शक्तियों के द्वारा शिक्षा-शत्रुओं को अभिभूत करने के लिये हमें शक्तिशाली बनाने की कामना करिये। आपके अनुग्रह से सशक्त बनकर हम शत्रुओं का शातन कर पायें।
भावार्थ
भावार्थ- हे प्रभो ! वध करनेवाले रोग और मनों को अभिभूत करनेवाले काम-क्रोध आदि आसुरभाव हमें आक्रान्त न कर पायें। प्रभु हमें शक्ति दें कि हम इन शत्रुओं को अभिभूत कर सकें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of refulgent power, give us not away to the scornful abuser nor to the wild tyrant. With your laws and powers, pray discipline, rule, instruct and enlighten us.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात जिज्ञासूकडून ही प्रार्थना केलेली आहे, की हे शासनकर्त्या कर्मयोगी! तुम्ही मला त्या हिंसक व क्रूरकर्मा माणसाच्या वशीभूत करू नका. जो अत्यंत त्रास देतो. कृपा करून तुम्ही आपल्या नियंत्रणात ठेवून माझे जीवन उच्च बनवा. ज्यामुळे मी परमेश्वराच्या आज्ञेचे पालन करून उत्तम कर्म करू शकेन.
टिप्पणी
‘शची’ शब्द या मंत्रात बुद्धी, कर्म व वाणीच्या अभिप्रायाने आलेला आहे. वैदिक कोशात याचे तीन अर्थ केलेले आहे. अर्थात ‘शची’ शब्द येथे कर्मयोग्याच्या शक्तीसाठी प्रयुक्त झालेला आहे. एखाद्या व्यक्तिविशेषासाठी नाही. ॥१५॥
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