ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - आर्षीगायत्री
स्वरः - षड्जः
न यं शु॒क्रो न दुरा॑शी॒र्न तृ॒प्रा उ॑रु॒व्यच॑सम् । अ॒प॒स्पृ॒ण्व॒ते सु॒हार्द॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठन । यम् । शु॒क्रः । न । दुःऽआ॑शीः । न । तृ॒प्राः । उ॒रु॒ऽव्यच॑सम् । अ॒प॒ऽस्पृ॒ण्व॒ते । सु॒ऽहार्द॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न यं शुक्रो न दुराशीर्न तृप्रा उरुव्यचसम् । अपस्पृण्वते सुहार्दम् ॥
स्वर रहित पद पाठन । यम् । शुक्रः । न । दुःऽआशीः । न । तृप्राः । उरुऽव्यचसम् । अपऽस्पृण्वते । सुऽहार्दम् ॥ ८.२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(यं) यं कर्मयोगिनं (शुक्रः) बलवान् (न, अपस्पृण्वते) न प्रीणयतीति न (उरुव्यचसं) बहुव्याप्तिमन्तं यं (दुराशीः, न) दुष्प्रयोजनो न प्रीणयतीति न (तृप्राः) पूर्णकामाः (सुहार्दं) सर्वोपकारकं तं (न) नापस्पृण्वत इति न ॥५॥
विषयः
अनयेश्वरस्यागम्यतां दर्शयति ।
पदार्थः
यः खलु सर्वेश्वरः सर्वात्मा परमात्मास्ति स एकरसेन तिष्ठति न कदापि विकृतिमाप्नोति न कदापि हृष्यति न च क्लिश्यते । यमिह न कोऽपि पदार्थः प्रसादयितुं शक्नोति । तमिह अनभिज्ञा अध्वर्यवः कथमिव विनश्वरैर्द्रव्यैः लोभयन्त इव सन्तोषयितुं यतन्ते । तथापि भक्त्या प्रेम्णा अन्तःकरणेन च जनास्तमेव यदुपासते । सा प्रेमनिर्भरस्थानं मनुष्याणामभीष्टदेवतां प्रति मानसिकभावनास्ति । सर्वभावेन तं प्रसादयितुं न कोऽपि शक्नोति । तथापि साक्षित्वेन भक्तानां सात्त्विकमनोभावं भावयन् संतुष्यत्येव चेतनत्वात् पैतृकवात्सल्यात् सर्वेषां प्राणिनां सुमित्रत्वाच्चेत्यनया दर्शयति । यथा । शुक्रः=विद्यया ज्ञानेन च भासमानस्तपस्वी । यद्वा । दीप्तिमान् सूर्य्यादिपदार्थः । यमिन्द्रम् । न अपस्पृणोति=न प्रीणयति प्रीणयितुं न शक्नोतीत्यर्थः । तथा दुराशीर्योगी समाधिसिद्धः पुरुषः । यद्वा । दुर्निरीक्ष्यं नक्षत्रादि । न अपस्पृणोति=सन्तोषयितुं न शक्नोति । तथा तृप्राः=तर्पका अध्वर्युप्रभृतयो दानाद्युपकारैर्जगत् तोषयितारो वा । न अपस्पृण्वते=न प्रीणयन्ति । किं विशिष्टम् इन्द्रम् । उरुव्यचसम्=उरु विस्तीर्णं व्यचो व्यापनं यस्य स उरुव्यचाः=सर्वव्यापकः सर्वान्तर्यामी वर्तते तमनन्तं महान्तमीश्वरं सान्ताः क्षुद्राः कथमिव सन्तोषयितुं शक्नुयुरिति ध्वनिः । पुनः । सुहार्दम्=सुहृदयं सुमित्रम् । यद्यपि स एकपादेन सर्वमावृत्य तिष्ठति तथापि स हि सर्वेषां सुहृद् वर्तते ॥५ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(यं) जिस कर्मयोगी को (शुक्रः) बलवान् (न, अपस्पृण्वते) नहीं प्रसन्न रखता, सो नहीं, (उरुव्यचसं) महाव्याप्ति वाले कर्मयोगी को (दुराशीः, न) दुष्प्राप मनुष्य नहीं प्रसन्न रखता, सो नहीं, (सुहार्दं) सर्वोपकारक कर्मयोगी को (तृप्राः) सर्वपूर्णकाम मनुष्य (न) नहीं प्रसन्न रखते, सो नहीं ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में यह वर्णन किया है कि बलवान्, दुष्प्राप्य तथा पूर्णकाम आदि सब पुरुष कर्मयोगी को सदा प्रसन्न रखते तथा उसी के अनुकूल आचरण करते हैं, अर्थात् सब अनुचर जैसा सम्बन्ध रखते हुए सदा उसकी सेवा में तत्पर रहते हैं, ताकि वह प्रसन्न हुआ सबको विद्यादान द्वारा तृप्त करे ॥५॥
विषय
इससे ईश्वर की अगम्यता दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(शुक्रः) ज्ञान और विद्या से भासमान तपस्वी अथवा निज प्रकाश से दीप्तिमान् सूर्य्यादि ग्रह (यम्) जिस इन्द्रवाच्य परमात्मा को (न) नहीं (अपस्पृण्वते) प्रसन्न कर सकता । (दुराशीः) समाधिसिद्ध योगी अथवा दुर्निरीक्ष्य नक्षत्रगण जिसको (न) नहीं तृप्त कर सकता । और (तृप्राः) ज्ञानों से वा दानों से वा उपकारों से तृप्त करनेवाले अध्वर्यु प्रभृति अथवा पृथिवी आदि महाभूत (न) नहीं (अपस्पृण्वते) तृप्त कर सकते हैं, उसकी उपासना करो । वह कैसा है । (उरुव्यचसम्) उरु=विस्तीर्ण, व्यचम्=व्यापकता जिसकी, वह उरुव्यचा=सर्वव्यापक । यद्यपि वह एक अंश से सम्पूर्ण जगत् को आवृत कर वर्तमान है । उसको कोई भी पदार्थ तृप्त करने में समर्थ नहीं, तथापि वह (सुहार्दम्) सबका सुमित्रस्वरूप है ॥५ ॥
भावार्थ
जो सर्वेश्वर सर्वात्मा परमात्मा है, वह सदा एक रस से रहता है । वह न कदापि तृप्त होता न प्रसन्न और न क्लेशित होता । जिसको कोई भी पदार्थ प्रसन्न नहीं कर सकते, उसको अध्वर्युगण स्तोत्रादिकों से कैसे लुभा सकते । तथापि प्रेम, भक्ति और श्रद्धा से जो उसकी स्तुति प्रार्थना करते हैं, वह उनकी परमदेवता के प्रति मानसिक भावना है । यद्यपि सर्व भाव से उसको कोई भी प्रसन्न नहीं कर सकता, तथापि वह सबका पिता और भक्तवत्सल है, अतः उसकी प्रसन्नता मनुष्यों के कर्म में प्रतीत होती है ॥५ ॥
विषय
अद्वितीय स्वामी इन्द्र ।
भावार्थ
( उरु-व्यचसं ) महान् राष्ट्र में विशेष प्रसिद्ध ( सु-हार्दम् ) उत्तम हृदय वाले (यं) जिसको ( न शुक्रः ) न देह में बलवीर्यवत् कान्ति तेजोवर्धक बल और ( न दुराशी: ) न दुर्भावना, और ( न तृप्राः ) न तृप्त, अति धनी जन ही ( अप-स्पृण्वते ) द्वेष कर सकते हैं। वह बल का स्वामी, सब का प्रिय और मित्र है । इति सप्तदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः । ४१, ४२ मेधातिथिर्ऋषिः ॥ देवता:—१—४० इन्द्रः। ४१, ४२ विभिन्दोर्दानस्तुतिः॥ छन्दः –१– ३, ५, ६, ९, ११, १२, १४, १६—१८, २२, २७, २९, ३१, ३३, ३५, ३७, ३८, ३९ आर्षीं गायत्री। ४, १३, १५, १९—२१, २३, २४, २५, २६, ३०, ३२, ३६, ४२ आर्षीं निचृद्गायत्री। ७, ८, १०, ३४, ४० आर्षीं विराड् गायत्री। ४१ पादनिचृद् गायत्री। २८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
उरुव्यचाः सुहार्द
पदार्थ
[१] (यम्) = जिस (उरुव्यचसम्) = महान् विस्तारवाले प्रभु को (शुक्रः) = [ शुक् गतौ ] गतिशील पुरुष (न अपस्पृण्वते) = प्रीणित नहीं करता, सो बात नहीं है। अर्थात् गतिशील पुरुष ही स्वकर्म द्वारा प्रभु का अर्चन करता है। (दुराशी) = [दुर् आ शृ] बुराई का समन्तात् विनाश करनेवाला व्यक्ति उस (सुहार्दम्) = उत्तम मित्र प्रभु को (न) = प्रीणित नहीं करता ऐसी बात नहीं है। [२] इसी प्रकार (तृप्राः) = जीवन को उत्तम बनाने के द्वारा अपने माता, पिता व बड़ों को प्रसन्न करनेवाले व्यक्ति (न) = उस प्रभु को प्रीणित न करें, सो नहीं है। प्रभु को ये तृत्र प्रीणित करते ही हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु अत्यन्त विस्तारवाले व उत्तम मित्र हैं। प्रभु को गतिशील [शुक्र] बुराइयों को शीर्ण करनेवाले [दुराशी] उत्तम कर्मों से माता, पिता को प्रसन्न करनेवाले [शृ] व्यक्ति प्रीणित करते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Neither the most sparkling soma of devotion nor the most sophisticated and aromatic, nor the most delightful, ever satiate the lord infinite of the holiest heart and love.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात बलवान, दुष्प्राप्य व पूर्णकाम इत्यादी सर्व पुरुष कर्मयोग्याला सदैव प्रसन्न ठेवतात व त्याच्या अनुकूल आचरण करतात. अर्थात सर्वजण अनुचराप्रमाणे संबंध ठेवून सदैव त्याच्या सेवेत तत्पर असतात. कारण त्याने प्रसन्न होऊन सर्वांना विद्यादानाद्वारे तृप्त करावे. ॥५॥
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