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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 31
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीगायत्री स्वरः - षड्जः

    ए॒वेदे॒ष तु॑विकू॒र्मिर्वाजाँ॒ एको॒ वज्र॑हस्तः । स॒नादमृ॑क्तो दयते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । इत् । ए॒षः । तु॒वि॒ऽकू॒र्मिः । वाजा॑न् । एकः॑ । वज्र॑ऽहस्तः । स॒नात् । अमृ॑क्तः । द॒य॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवेदेष तुविकूर्मिर्वाजाँ एको वज्रहस्तः । सनादमृक्तो दयते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । इत् । एषः । तुविऽकूर्मिः । वाजान् । एकः । वज्रऽहस्तः । सनात् । अमृक्तः । दयते ॥ ८.२.३१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 31
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ अन्नादिरक्षा विधीयते।

    पदार्थः

    (एषः, एव, इत्) एष एव कर्मयोगी (तुविकूर्मिः) बहुकर्मा (एकः) एक एव (वज्रहस्तः) वज्रवद्धस्तवान् (सनात्, अमृक्तः) चिरात् अनिर्बाधः सन् (वाजान्) अन्नादीनि (दयते) रक्षति ॥३१॥

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    विषयः

    स ह्यनन्तकर्मास्तीति दर्शयति ।

    पदार्थः

    एषः=कविभिरनुभूयमान इन्द्र एव । तुविकूर्मिः=बहुकर्मा अनन्तकर्मा । इदिति निश्चये । इन्द्रोऽनन्तकर्मास्तीति न संदेहः । पुनः । स एकः=अद्वितीयः स्वकार्ये साहाय्यानपेक्षः । पुनः । वज्रहस्तः=वज्रं विज्ञानाख्यं हस्ते यस्य स ज्ञानरूप इत्यर्थः । पुनः । सनात्=सदैव । अमृक्तः=अविनश्वरः । ईदृगिन्द्रः । अस्मभ्यमुपासकेभ्यः । वाजान्=विवेकान् । दयते=ददाति । सदा तत्प्रसादादेव विवेको लभ्यत इत्यर्थः ॥३१ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अन्नादि पदार्थों के सुरक्षित रखने का विधान कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (एषः, एव, इत्) यही कर्मयोगी (तुविकूर्मिः) अनेक कर्मोंवाला (एकः) एक ही (वज्रहस्तः) वज्रसमान हस्तवाला (सनात्, अमृक्तः) चिरकालपर्य्यन्त निर्विघ्न (वाजान्) अन्नादि पदार्थों को (दयते) सुरक्षित रखता है ॥३१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का तात्पर्य्य यह है कि जिज्ञासु पुरुष कर्मयोगी की स्तुति करते हुए उसको चिरकालपर्य्यन्त अन्नादि खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखनेवाला कथन करते हैं, जिसका भाव यह है कि राजा तथा प्रजा को अन्न का कोष सदा चिरकाल तक सुरक्षित रखना चाहिये, जिससे प्रजा अन्न के कष्ट से दारुण दुःख को प्राप्त न हो। शास्त्र में “अन्नं वै प्राणः”=अन्न को प्राण कथन किया है, क्योंकि अन्न के विना प्राणी जीवित नहीं रह सकता, इसलिये पुरुषों को उचित है कि अन्न का कोश सदा सुरक्षित रखें ॥३१॥

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    विषय

    वही अनन्तकर्मा है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    विद्वानों से अनुभूयमान (एषः+एव) यही (इत्) निश्चय (तुविकूर्मिः) अनन्तकर्मकारक है । (एकः) वह अपने कार्य में किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं करता, अतः एक ही है । (वज्रहस्तः) जिसके हाथ में ज्ञानरूप वज्र है अथवा दण्डधारी है । और (सनात्) सदा से (अमृक्तः) अविनश्वर है । वह इन्द्र हम भक्तजनों को (वाजान्) विवेक और विविध अन्न (दयते) देता है ॥३१ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस हेतु वही विश्वकर्मा कर्मफलदाता और अविनश्वरदेव है । उसी की कृपा से विज्ञान और धन प्राप्त होते हैं । अतः आप भी कर्म करें । आलस्य त्यागें और उसी की शरण में जायँ ॥३१ ॥

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    विषय

    प्रभु परमेश्वर से बल ऐश्वर्य की याचना

    भावार्थ

    ( एव इत् ) निश्चय से ही, ( एषः ) यह ( तुवि-कूर्मि: ) बहुत से लोकों को बताने हारा ( एकः ) अकेला, ( वज्रहस्तः ) अपने हाथ में समस्त शक्तियों को लेने वाला, ( सनात् ) सनातन से प्रसिद्ध ( अमृक्तः ) अविनाशी प्रभु ही ( वाजान् दयते ) समस्त ऐश्वर्यों और सुखों, ज्ञानों को प्रदान करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्यातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः । ४१, ४२ मेधातिथिर्ऋषिः ॥ देवता:—१—४० इन्द्रः। ४१, ४२ विभिन्दोर्दानस्तुतिः॥ छन्दः –१– ३, ५, ६, ९, ११, १२, १४, १६—१८, २२, २७, २९, ३१, ३३, ३५, ३७, ३८, ३९ आर्षीं गायत्री। ४, १३, १५, १९—२१, २३, २४, २५, २६, ३०, ३२, ३६, ४२ आर्षीं निचृद्गायत्री। ७, ८, १०, ३४, ४० आर्षीं विराड् गायत्री। ४१ पादनिचृद् गायत्री। २८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    तुविकूर्मि: वज्रहस्तः

    पदार्थ

    [१] (एवा) = सचमुच (इत्) = ही (एषः) = यह प्रभु (तुविकूमिः) = महान् कर्मोंवाले हैं। इन सब महान् लोक-लोकान्तरों को बनानेवाले हैं। वे (एकः) = अद्वितीय प्रभु ही (वज्रहस्तः) = वज्रहस्त होकर सब लोकों का नियमन व शासन कर रहे हैं। उसी के वज्र के भय से सब सूर्य आदि अपने-अपने मार्ग पर चल रहे हैं [२] ये प्रभु ही (सनाद् अमृक्तः) = [unhurt] सदा से अहिंसित व [unwashed] अशोधनीय, सदा पवित्र होते हुए (वाजान् दयते) = सब शक्तियों को उपासकों के लिये प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्रभु ही इन महान् लोकों के निर्माता व धारक हैं। वे सदा पवित्र प्रभु हमारे लिये शक्तियाँ को प्राप्त कराते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Only this lord omnipotent of universal karma, the one lord of thunder and justice in hand, inviolable and imperishable, gives us food and energy, success and victory since eternity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्राचे तात्पर्य हे आहे, की जिज्ञासू पुरुष कर्मयोग्याची स्तुती करत त्याला चिरकालपर्यंत अन्न इत्यादी खाद्यपदार्थांना सुरक्षित ठेवणारा मानतात. ज्याचा भाव हा आहे, की राजा व प्रजेने अन्नाचे कोश सदैव चिरकालपर्यंत सुरक्षित ठेवले पाहिजेत. ज्यामुळे प्रजेला अन्नाच्या अभावाने दारुण दु:ख प्राप्त होता कामा नये. शास्त्रात ‘अन्नं वै प्राण:’= अन्नाला प्राण म्हटलेले आहे. कारण अन्नाशिवाय प्राणी जीवित राहू शकत नाही. त्यासाठी पुरुषांनी अन्नाचा कोश सदैव सुरक्षित ठेवावा. ॥३१॥

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