ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 18
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - आर्षीगायत्री
स्वरः - षड्जः
इ॒च्छन्ति॑ दे॒वाः सु॒न्वन्तं॒ न स्वप्ना॑य स्पृहयन्ति । यन्ति॑ प्र॒माद॒मत॑न्द्राः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒च्छन्ति॑ । दे॒वाः । सु॒न्वन्त॑म् । न । स्वप्ना॑य । स्पृ॒ह॒य॒न्ति॒ । यन्ति॑ । प्र॒ऽमाद॑म् । अत॑न्द्राः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इच्छन्ति देवाः सुन्वन्तं न स्वप्नाय स्पृहयन्ति । यन्ति प्रमादमतन्द्राः ॥
स्वर रहित पद पाठइच्छन्ति । देवाः । सुन्वन्तम् । न । स्वप्नाय । स्पृहयन्ति । यन्ति । प्रऽमादम् । अतन्द्राः ॥ ८.२.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 18
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ उद्योगिभिरनालस्यैरेव परमानन्दः प्राप्यते इति कथ्यते।
पदार्थः
(देवाः) दिव्याः कर्मयोगिनः (सुन्वन्तं) क्रियासिद्धिकर्तारं (इच्छन्ति) वाञ्छन्ति (स्वप्नाय) आलस्यं (न) नहि (स्पृहयन्ति) वाञ्छन्ति (अतन्द्राः) निरालस्याः सन्तः (प्रमादं) परमानन्दं (यन्ति) प्राप्नुवन्ति ॥१८॥
विषयः
आलस्यं निवारयन्ती श्रुतिराह ।
पदार्थः
देवाः=विद्वांसः । सुन्वन्तम्=शुभकर्माणि कुर्वन्तं जनम् । इच्छन्ति । स्वप्नाय=स्वपितीति स्वप्नः स्वप्नकारी शयनकारी । स्वप्नशीलाय पुरुषाय । न स्पृहयन्ति= नेच्छन्ति । यद्वा । जनस्य कस्यचिदपि स्वप्नाय स्वप्नावस्थायै न स्पृहयन्ति । विद्वांसः खलु सर्वदा सर्वजनं प्रबुद्धमिच्छन्ति । सर्वः खलु आलस्यरहितो भवत्विति तेषां स्पृहा “स्पृहेरीप्सितः” इति कर्मणि चतुर्थी । स्पृह ईप्सायां चुरादिरदन्तः । यत एवम्=अतः कारणात् । अतन्द्राः=तन्द्रा आलस्यं न विद्यते येषां ते अतन्द्रा आलस्यरहिता जनाः । प्रमादं=प्रकृष्टं मादमानन्दम् । यन्ति=प्राप्नुवन्ति । विचित्रो हि वैदिकः प्रयोगः । स लौकिकसाम्यं नाभ्युपैति । लोके प्रमादशब्दोऽनवधाने । वेदे आनन्दातिशये क्वचित् ॥१८ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब उद्योगी पुरुष के लिये निरालस्य से परमानन्द की प्राप्ति कथन करते हैं।
पदार्थ
(देवाः) दिव्यकर्मकर्त्ता योगीजन (सुन्वन्तं) क्रियाओं में तत्पर मनुष्य को (इच्छन्ति) चाहते हैं (स्वप्नाय) आलस्य को (न) नहीं (स्पृहयन्ति) चाहते (अतन्द्राः) निरालस होकर (प्रमादं) परमानन्द को (यन्ति) प्राप्त होते हैं ॥१८॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव यह है कि उत्तमोत्तम आविष्कारों में तत्पर कर्मयोगी लोग निरालसी क्रियाओं में तत्पर पुरुष को विविध रचनात्मक कामों में प्रवृत्त करते हैं अर्थात् उद्योगी पुरुष को अपने उपदेशों द्वारा कलाकौशलादि अनेकविध कामों को सिखलाते हैं और ऐसा पुरुष जो आलस्य को त्यागकर निरन्तर उद्योग में प्रवृत्त रहता है, वही सुख भोगता तथा वही परमानन्द को प्राप्त होता है और आलसी व्यसनों में प्रवृत्त हुआ निरन्तर अपनी अवनति करता तथा सुख, सम्पत्ति और आनन्द से सदा वञ्चित रहता है, इसलिये ऐश्वर्य्य और आनन्द की कामनावाले पुरुष को निरन्तर उद्योगी होना चाहिये ॥१८॥
विषय
आलस्य को निवारण करती हुई श्रुति कहती है ।
पदार्थ
(देवाः) विद्वान् जन (सुन्वन्तम्) शुभकर्मों में आसक्त जन की (इच्छन्ति) इच्छा करते हैं । (स्वप्नाय) स्वप्नशील आलसी पुरुष की (न स्पृहयन्ति) स्पृहा=इच्छा नहीं करते हैं । क्योंकि (अतन्द्राः) आलस्यरहित पुरुष ही (प्रमादम्) परम आनन्द को (यन्ति) पाते हैं ॥१८ ॥
भावार्थ
जैसे विद्वान् आलसी पुरुष को नहीं चाहते हैं, तद्वत् सर्वहितकारी पुरुषों को उचित है कि वे उत्तमोत्तम कर्म करके उपमेय बनने की चेष्टा करें ॥१८ ॥
टिप्पणी
आलस्य कदापि कर्त्तव्य नहीं, यह शिक्षा इससे दी जाती है । आलस्य मृत्यु है और उद्योग जीवन है । वेद में कहा गया है कि आलस्यरहित युवती स्त्रियाँ ही अच्छा सन्तान पैदा कर सकती है । यथा−दशेमं त्वष्टुर्जनयन्त गर्भमतन्द्रासो युवतयो विभृत्रम् ॥ ऋ० १ । ९५ । २ ॥ जो (दश) ये दशों दिशाएँ (त्वष्टुः) सूर्य्यरूप पति से (विभृत्रम्) धारणपोषणकर्ता (इमम्) इस प्रत्यक्ष (गर्भम्) मेघरूप गर्भ को (जनयन्त) पैदा करती हैं । तद्वत् (अतन्द्रासः) निरालस्य (युवतयः) युवती स्त्रियाँ जगत्पोषक गर्भ अर्थात् सन्तान को जनती हैं ॥१८ ॥
विषय
प्रभु परमेश्वर से बल ऐश्वर्य की याचना
भावार्थ
( देवाः ) विद्वान् , शुभ कामना वाले जन ( सुन्वन्तं ) यज्ञकर्म और ईश्वर स्तुति करने वाले तथा ऐश्वर्य प्राप्त करने वाले को (इच्छन्ति) चाहते हैं । वे ( स्वप्नाय ) सोने वाले को ( न स्पृहयन्ति ) प्रेम नहीं करते, वा वे ( स्वप्नाय न स्पृहयन्ति ) आलस्य से प्रेम नहीं करते । ( अतन्द्राः ) आलस्यरहित पुरुष भी ( प्रसादम् यन्ति ) प्रमाद को प्राप्त हो जाते हैं इसलिये आलस्य से प्रेम न करो । अथवा—( अतन्द्राः ) तन्द्रा, आलस्य से रहित लोग ही ( प्र-मादम् यन्ति ) उत्तम कोटि का आनन्द प्राप्त करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः । ४१, ४२ मेधातिथिर्ऋषिः ॥ देवता:—१—४० इन्द्रः। ४१, ४२ विभिन्दोर्दानस्तुतिः॥ छन्दः –१– ३, ५, ६, ९, ११, १२, १४, १६—१८, २२, २७, २९, ३१, ३३, ३५, ३७, ३८, ३९ आर्षीं गायत्री। ४, १३, १५, १९—२१, २३, २४, २५, २६, ३०, ३२, ३६, ४२ आर्षीं निचृद्गायत्री। ७, ८, १०, ३४, ४० आर्षीं विराड् गायत्री। ४१ पादनिचृद् गायत्री। २८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
पुरुषार्थ में ही दिव्यता व आनन्द का वास हो
पदार्थ
[१] (देवाः) = सब देव (सुन्वन्तम्) = यज्ञशील को (इच्छन्ति) = चाहते हैं। यज्ञों में प्रवृत्त पुरुष ही देवों का प्रिय बनता है। (स्वप्नाय न स्पृहयन्ति) = सोनेवाले को देव नहीं चाहते। आलसी देवों का प्रिय नहीं होता। [२] आलस्य को छोड़कर (अतन्द्राः) = तन्द्राशून्य जीवनवाले पुरुष (प्रमादं यन्ति) = प्रकृष्ट हर्ष को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ-यज्ञशील पुरुष ही देवों का प्रिय बनता है, अर्थात् दिव्यगुणों को धारण करता है। आलस्य के साथ दिव्यताओं का सम्बन्ध नहीं । पुरुषार्थ में ही आनन्द है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Divines of brilliance and holy action love those engaged in creative actions of piety. They care not for dreams and love no dreamers. Active, wakeful and realistic beyond illusion, they achieve the joy of success in life.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात हा भाव आहे, की उत्तमोत्तम आविष्कारात तत्पर कर्मयोगी लोक आळशी नसलेल्या तत्पर पुरुषाला विविध रचनात्मक कामात प्रवृत्त करतात. अर्थात् उद्योगी पुरुषाला आपल्या उपदेशाद्वारे कलाकौशल्याची कामे शिकवितात. जो पुरुष आळस त्यागून निरंतर उद्योगात प्रवृत्त राहतो तोच सुख भोगतो व तोच परमानंद प्राप्त करतो व आळशी माणूस व्यसनामध्ये प्रवृत्त होऊन निरंतर आपली अवनती करत सुख, संपत्ती व आनंदापासून वंचित होतो. त्यासाठी ऐश्वर्य व आनंदाची कामना करणाऱ्या पुरुषाला निरंतर उद्योगी झाले पाहिजे. ॥१८॥
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