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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीगायत्री स्वरः - षड्जः

    गोभि॒र्यदी॑म॒न्ये अ॒स्मन्मृ॒गं न व्रा मृ॒गय॑न्ते । अ॒भि॒त्सर॑न्ति धे॒नुभि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गोभिः॑ । यत् । ई॒म् । अ॒न्ये । अ॒स्मत् । मृ॒गम् । न । व्राः । मृ॒गय॑न्ते । अ॒भि॒ऽत्सर॑न्ति । धे॒नुऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गोभिर्यदीमन्ये अस्मन्मृगं न व्रा मृगयन्ते । अभित्सरन्ति धेनुभि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गोभिः । यत् । ईम् । अन्ये । अस्मत् । मृगम् । न । व्राः । मृगयन्ते । अभिऽत्सरन्ति । धेनुऽभिः ॥ ८.२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ कर्मयोगिसकाशात् विद्याऽदानमुच्यते।

    पदार्थः

    (यत्) यतः (ईं) इमं (अस्मत्, अन्ये) अस्मत्तोऽन्ये (व्राः) सेवकाः (गोभिः) गव्यैः पदार्थैः सहिताः (मृगं, न) मृगं व्याधा इव (मृगयन्ते) अन्विष्यन्ति ये च (धेनुभिः) वाग्भिः (अभित्सरन्ति) छद्म कुर्वन्ति, ते तं न लभन्ते ॥६॥

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    विषयः

    स एवान्वेषणीय इत्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    अस्मद्=अस्मत्तः । अन्ये केचन । गोभिः= साधारणवाणीभिः, इन्द्रियैर्वा । गोशब्दोऽनेकार्थः । यद्=यमिन्द्रम् । ईं=निश्चयेन । मृगयन्ते=अन्विष्यन्ति । मृग अन्वेषणे । अन्ये केचन । धेनुभिः=फलप्रदात्रीभिः सुसंस्कृताभिर्वाणीभिः स्तोत्ररूपाभिः । धेनुरिति वाङ्नामसु पठितम् । यमिन्द्रम् । अभित्सरन्ति=सर्वभावेन गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति तमेव । हे जना यूयमपि अर्चत । त्सर छद्मगतौ अत्र दृष्टान्तः−व्राः=व्याधाः । न=यथा । मृगं=पशुम् । यथा व्याधाः पशुं मृगयन्ते तद्वत् सर्वे तमेव परमात्मानं गवेषन्त इत्यर्थः ॥६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब कर्मयोगी से विद्याग्रहण करना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (यत्) जो (अस्मत्, अन्ये, व्राः) हमसे अन्य क्रूर सेवक लोग (ईं) इसको (गोभिः) गव्य पदार्थ लिये हुए (मृगं, न) जैसे व्याध मृग को ढूँढ़ता है, इस प्रकार (मृगयन्ते) ढूँढ़ते हैं और जो लोग (धेनुभिः) वाणियों द्वारा (अभित्सरन्ति) छलते हैं, वे उसको प्राप्त नहीं हो सकते ॥६॥

    भावार्थ

    जो लोग कर्मयोगी को क्रूरता से वञ्चन करते हैं, वे उससे विद्या संबन्धी लाभ प्राप्त नहीं कर सकते और जो लोग वाणीमात्र से उसका सत्कार करते हैं अर्थात् उसको अच्छा कह छोड़ते हैं और उसके कर्मों का अनुष्ठान नहीं करते, वे भी उससे लाभ नहीं उठा सकते और न ऐसे अनुष्ठानी पुरुष कभी भी अभ्युदय को प्राप्त होते हैं, इसलिये जिज्ञासु पुरुषों को उचित है कि सदैव सरलचित्त से उसकी सेवा तथा आज्ञापालन करते हुए उससे विद्या का लाभ करें और उसके कर्मों का अनुष्ठान करते हुए अभ्युदय को प्राप्त हों ॥६॥

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    विषय

    वही अन्वेषणीय है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    सब ही, क्या विद्वान् क्या मूर्ख, उसी की उपासना करते हैं, यह इस ऋचा से दिखलाते हैं । (न) जैसे (व्राः१) व्याधगण (मृगम्+मृगयन्ते) मृग=हरिण आदि पशु को खोजते फिरते हैं, वैसे ही (अस्मत्) हमसे (अन्ये) अन्य कोई (यत्) जिसका (ईम्) निश्चयरूप से (गोभिः२) साधारण मानववाणियों से (मृगयन्ते) अन्वेषण करते हैं । और कोई (धेनुभिः२) फलदात्री सुसंस्कृता स्तोत्ररूपा वाणियों से (अभित्सरन्ति) सर्व भाव से जिसके निकट जाते हैं अथवा जिसको प्राप्त करते हैं, वही उपास्यदेव है ॥६ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिसको सब ही खोज रहे हैं, उसी की उपासना से आत्मा को तृप्त करो ॥६ ॥

    टिप्पणी

    १−मृगं न व्रा मृगयन्ते−वेदों में व्रा शब्द के पाठ अनेक स्थल में देखते हैं, परन्तु भाष्यकारों ने व्रात शब्द के स्थान में व्रा शब्द माना है । अर्थात् व्रात के तकार का लोप करके केवल व्रा रूप रह गया है । व्रात=समूह । परन्तु यहाँ सबने व्रा शब्द का अर्थ व्याध ही किया है । निरुक्त ५ । ३ में भी देखो । २−निघण्टु अ० १ । खं० ११ में वाणी के नाम ५७ आए हैं । उनमें गो और धेनु दोनों के पाठ हैं ॥६ ॥

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    विषय

    उस की उपासना।

    भावार्थ

    ( व्राः न मृगं ) घेरने वाले जन जैसे मृग या सिंह को ( गोभिः मृगयन्ते ) हाकों से ढूंढ़ते हैं उसी प्रकार ( यत् ) जिस को ( अस्मत् अन्ये ) हम से दूसरे भी ( गोभिः ) स्तुति वाणियों से (मृगयन्ते) खोजते फिरते हैं वे उसको ( धेनुभिः ) वाणियों, स्तुतियों द्वारा ही ( अभि त्सरन्ति ) प्राप्त होते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्यातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः । ४१, ४२ मेधातिथिर्ऋषिः ॥ देवता:—१—४० इन्द्रः। ४१, ४२ विभिन्दोर्दानस्तुतिः॥ छन्दः –१– ३, ५, ६, ९, ११, १२, १४, १६—१८, २२, २७, २९, ३१, ३३, ३५, ३७, ३८, ३९ आर्षीं गायत्री। ४, १३, १५, १९—२१, २३, २४, २५, २६, ३०, ३२, ३६, ४२ आर्षीं निचृद्गायत्री। ७, ८, १०, ३४, ४० आर्षीं विराड् गायत्री। ४१ पादनिचृद् गायत्री। २८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    गोभिः मृगयन्ते, अभित्सरन्ति धेनुभिः

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जब (अस्मत् अन्ये) = हमारे से भिन्न ये लोग (ईम्) = निश्चय से (गोभिः) = इन ज्ञान की वाणियों द्वारा उस प्रभु को (मृगयन्ते) = ढूँढ़ते हैं। इस प्रकार ढूँढ़ते हैं, (न) = जैसे (व्राः मृगम्) = घेर लेनेवाले शिकारी शिकार के योग्य पशु को हमें भी चाहिये कि हम भी स्वाध्याय द्वारा ज्ञानवाणियों का ग्रहण करते हुए प्रभु के अन्वेषण के लिये यत्नशील हों। [२] ये लोग (धेनुभिः) = ज्ञानदुग्ध को देनेवाली इन वेद-धेनुओं से (अभित्सरन्ति) = उस प्रभु के समीप शान्तिपूर्वक प्राप्त होते हैं। इनके द्वारा हम क्यों न प्रभु को पायेंगे?

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञान की वाणियों द्वारा हम इष्टदेवता से अपना सम्बन्ध स्थापित करें। वेद- धेनुओं को अपनाते हुए प्रभु के समीप हों।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Multitudes of people other than us approved him and try to inveigle him with creamy entertainment and sweet flattering words of adoration just like a hunter baiting a lion (but they fail).

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक कर्मयोग्याची क्रूरतेने वंचना करतात, ते त्याच्या विद्येचा लाभ घेऊ शकत नाहीत व जे लोक वाणीनेच त्याचा सत्कार करतात, अर्थात चांगले म्हणून सोडून देतात; परंतु त्याच्या कर्माचे अनुष्ठान करत नाहीत तेही त्याच्यापासून लाभ घेऊ शकत नाहीत. असे अनुष्ठानी पुरुष कधीही अभ्युदय प्राप्त करू शकत नाहीत. त्यासाठी जिज्ञासू पुरुषांनी सदैव सरळ चित्ताने त्याची सेवा व आज्ञापालन करत त्याच्यापासून विद्येचा लाभ घ्यावा व त्याच्या कर्माचे अनुष्ठान करत अभ्युदय करून घ्यावा. ॥६॥

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