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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 67/ मन्त्र 17
    ऋषिः - जमदग्निः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराडार्चीगायत्री स्वरः - षड्जः

    असृ॑ग्रन्दे॒ववी॑तये वाज॒यन्तो॒ रथा॑ इव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असृ॑ग्रन् । दे॒वऽवी॑तये । वा॒ज॒ऽयन्तः॑ । रथाः॑ऽइव ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असृग्रन्देववीतये वाजयन्तो रथा इव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असृग्रन् । देवऽवीतये । वाजऽयन्तः । रथाःऽइव ॥ ९.६७.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 67; मन्त्र » 17
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देववीतये) देवमार्गावाप्तये (वाजयन्तः) बलवन्तः (रथा इव) रथवद् उद्योगिनः (असृग्रन्) विरच्यन्ते ॥१७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देववीतये) देवमार्ग की प्राप्ति के लिए (वाजयन्तः) बलवाले (रथा इव) रथों की तरह उद्योगी लोग (असृग्रन्) रचे जाते हैं ॥१७॥

    भावार्थ

    “आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु” कठ. १।२।३। इस वाक्य में जैसे शरीर को रथ बनाया है, इसी प्रकार यहाँ भी रथ का दृष्टान्त है। तात्पर्य यह है कि जिन पुरुषों के शरीर दृढ़ होते हैं, वा यों कहो कि परमात्मा पूर्वकर्मानुसार जिन पुरुषों के शरीरों को दृढ़ बनाता है, वे कर्मयोग के लिए अत्यन्त उपयोगी होते हैं ॥१७॥

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    विषय

    देववीतये

    पदार्थ

    [१] ये सोम देववीतये दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिये (असृग्रन्) = उत्पन्न किये गये हैं । इनके रक्षण से सब दिव्यगुणों का विकास होता है । [२] ये सोम (वाजयन्तः) = संग्रामों को करते हुए (रथाः इव) = रथों के समान हैं। जैसे रथ संग्राम-विजय के साधन बनते हैं, इसी प्रकार ये सोम हमें जीवन-संग्राम में विजयी बनाते हैं। ये हमें शक्ति को प्राप्त करानेवाले हैं [वाजयन्तः ] ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम दिव्यगुणों को जन्म देते हैं और संग्राम में हमें विजयी बनाते हैं।

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    विषय

    अभिषिक्तों का सब की रक्षा के लिये सज्ज रहना।

    भावार्थ

    (ते) वे नाना (सुतासः) अभिषिक्त जन (मदिन्तमाः) खूब हर्ष उत्पन्न करने हारे (शुक्राः) जल वा रश्मियों के समान शुद्ध पवित्र, तेजस्वी होकर (वायुम् असृक्षत) वायुवत् प्रबल पद को निर्माण करते हैं और वे (वाजयन्तः रथाः इव) संग्राम करने वाले रथों के समान, (देव-वीतये) मनुष्यों की रक्षा के लिये (असृग्रन्) तैयार होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ भरद्वाजः। ४—६ कश्यपः। ७—९ गोतमः। १०–१२ अत्रिः। १३—१५ विश्वामित्रः। १६—१८ जमदग्निः। १९—२१ वसिष्ठः। २२—३२ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा॥ देवताः—१–९, १३—२२, २८—३० पवमानः सोमः। १०—१२ पवमानः सोमः पूषा वा। २३, २४ अग्निः सविता वा। २६ अग्निरग्निर्वा सविता च। २७ अग्निर्विश्वेदेवा वा। ३१, ३२ पावमान्यध्येतृस्तुतिः॥ छन्द:- १, २, ४, ५, ११—१३, १५, १९, २३, २५ निचृद् गायत्री। ३,८ विराड् गायत्री । १० यवमध्या गायत्री। १६—१८ भुरिगार्ची विराड् गायत्री। ६, ७, ९, १४, २०—२२, २, २६, २८, २९ गायत्री। २७ अनुष्टुप्। ३१, ३२ निचृदनुष्टुप्। ३० पुरउष्णिक्॥ द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Flowing and creating, Soma streams rush forward like victor chariots in the service of divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ‘आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेवतु’ कठ. १।२।३ या वाक्यात जसे शरीराला रथ म्हटलेले आहे त्याचप्रकारे येथेही रथाचा दृष्टांत आहे. तात्पर्य हे की ज्या पुरुषांची शरीर दृढ असतात किंवा परमात्मा पूर्वकर्मानुसार ज्या पुरुषांच्या शरीरांना दृढ बनवितो ती कर्मयोग्यासाठी अत्यंत उपयोगी असतात. ॥१७॥

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