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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 67/ मन्त्र 18
    ऋषिः - जमदग्निः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराडार्चीगायत्री स्वरः - षड्जः

    ते सु॒तासो॑ म॒दिन्त॑माः शु॒क्रा वा॒युम॑सृक्षत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । सु॒तासः॑ । म॒दिन्ऽत॑माः । शु॒क्राः । वा॒युम् । अ॒सृ॒क्ष॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते सुतासो मदिन्तमाः शुक्रा वायुमसृक्षत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते । सुतासः । मदिन्ऽतमाः । शुक्राः । वायुम् । असृक्षत ॥ ९.६७.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 67; मन्त्र » 18
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ते) भवतः (सुतासः) संस्कृताः (मदिन्तमाः) आमोदजनकाः (शुक्राः) स्वभावाः (वायुम्) कर्मयोगिनम् (असृक्षत) उत्पादयन्ति ॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ते) तुम्हारे (सुतासः) संस्कृत (मदिन्तमाः) आह्लादजनक (शुक्राः) स्वभाव (वायुं) कर्मयोगी को (असृक्षत) उत्पन्न करते हैं ॥१८॥

    भावार्थ

    तात्पर्य यह है कि जिसको परमात्मा उत्तम शील देता है, वही कर्मयोगी बनता है, अन्य नहीं ॥१८॥

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    विषय

    मदिन्तमाः

    पदार्थ

    [१] (ते) = वे (सुतासः) = उत्पन्न हुए हुए सोम (मदिन्तमाः) = हमें अतिशयेन आनन्दित करनेवाले हैं । [२] (शुक्राः) = हमें शुचि व दीप्त बनानेवाले ये सोम (वायुम्) = गति के द्वारा सब बुराइयों को नष्ट करनेवाले को (असृक्षत) = उत्पन्न करते हैं। हमें ये गतिशील व निर्मल बनाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम हमें आनन्दित करनेवाले व गतिशील बनानेवाले हैं। यह सोमरक्षक पुरुष अतिशयेन उत्तम निवासवाला 'वसिष्ठ' बनता है, और कहता है कि-

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    विषय

    विद्यार्थी का वीर के सदृश कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (ते) वे नाना (सुतासः) अभिषिक्त जन (मदिन्तमाः) खूब हर्ष उत्पन्न करने हारे (शुक्राः) जल वा रश्मियों के समान शुद्ध पवित्र, तेजस्वी होकर (वायुम् असृक्षत) वायुवत् प्रबल पद को निर्माण करते हैं और वे (वाजयन्तः रथाः इव) संग्राम करने वाले रथों के समान, (देव-वीतये) मनुष्यों की रक्षा के लिये (असृग्रन्) तैयार होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ भरद्वाजः। ४—६ कश्यपः। ७—९ गोतमः। १०–१२ अत्रिः। १३—१५ विश्वामित्रः। १६—१८ जमदग्निः। १९—२१ वसिष्ठः। २२—३२ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा॥ देवताः—१–९, १३—२२, २८—३० पवमानः सोमः। १०—१२ पवमानः सोमः पूषा वा। २३, २४ अग्निः सविता वा। २६ अग्निरग्निर्वा सविता च। २७ अग्निर्विश्वेदेवा वा। ३१, ३२ पावमान्यध्येतृस्तुतिः॥ छन्द:- १, २, ४, ५, ११—१३, १५, १९, २३, २५ निचृद् गायत्री। ३,८ विराड् गायत्री । १० यवमध्या गायत्री। १६—१८ भुरिगार्ची विराड् गायत्री। ६, ७, ९, १४, २०—२२, २, २६, २८, २९ गायत्री। २७ अनुष्टुप्। ३१, ३२ निचृदनुष्टुप्। ३० पुरउष्णिक्॥ द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Your creative spirits of imagination, powerful and most ecstatic, give birth to the vibrant poet creator, the karma yogi of imagination.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा ज्याला उत्तम शील देतो तोच कर्मयोगी बनतो, इतर नाही. ॥१८॥

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