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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 67/ मन्त्र 20
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ए॒ष तु॒न्नो अ॒भिष्टु॑तः प॒वित्र॒मति॑ गाहते । र॒क्षो॒हा वार॑म॒व्यय॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षः । तु॒न्नः । अ॒भिऽस्तु॑तः । प॒वित्र॑म् । अति॑ । गा॒ह॒ते॒ । र॒क्षः॒ऽहा । वार॑म् । अ॒व्यय॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष तुन्नो अभिष्टुतः पवित्रमति गाहते । रक्षोहा वारमव्ययम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । तुन्नः । अभिऽस्तुतः । पवित्रम् । अति । गाहते । रक्षःऽहा । वारम् । अव्ययम् ॥ ९.६७.२०

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 67; मन्त्र » 20
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (एषः) पूर्वोक्तः परमात्मा (तुन्नः) योऽज्ञाननिवृत्त्याऽऽविर्भूतस्तथा (अभिष्टुतः) सर्वथा स्तुतः स जगदीश्वरः (पवित्रम्) शुद्धान्तःकरणं (अतिगाहते) प्रकाशितं करोति। अथ च (रक्षोहा) दुष्टनाशकस्तथा (अव्ययम्) अविनाशी परमात्मास्ति तथा (वारम्) भजनीयश्च ॥२०॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एषः) उक्त परमात्मा (तुन्नः) जो अज्ञाननिवृत्ति द्वारा आविर्भाव को प्राप्त हुआ है और (अभिष्टुतः) सब प्रकार से स्तुति किया गया है, वह (पवित्रम्) पवित्र अन्तःकरण को (अति गाहते) प्रकाशित करता है और (रक्षोहा) दुष्टों का विघातक है तथा (अव्ययम्) अविनाशी और (वारम्) भजनीय है ॥२०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा के दण्डदातृत्व और अविनाशित्वादि धर्मों का कथन किया गया है ॥२०॥

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    विषय

    रक्षोहा

    पदार्थ

    [१] (एषः) = यह सोम (तुन्नः) = प्राणायामादि द्वारा शरीर के अन्दर प्रेरित हुआ-हुआ (अभिष्टुतः) = प्रातः - सायं स्तुत होता हुआ (पवित्रम्) = पवित्र हृदयवाले पुरुष को (अतिगाहते) = अतिशयेन आलोडित करता है, पवित्र हृदय वाले पुरुष में व्याप्त होता है । [२] यह (वारम्) = सब वासनाओं का निवारण करनेवाले व (अव्ययम्) = विविध विषय-वासनाओं में न जानेवाले पुरुष को प्राप्त होता है और (रक्षोहा) = सब रोगकृमिरूप राक्षसों का तथा राक्षसी भावों का (आसुरी वृत्तियों का) विनष्ट करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में व्याप्त सोम सब रोगकृमिरूप राक्षसों व काम आदि आसुरभावों का विनाशक है।

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    विषय

    राष्ट्र का कण्टक-शोधन करने वाले के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (एषः) यह (तुन्नः) विद्वानों द्वारा शासित और (अभि सुतः) सब ओर से प्रशंसित (रक्षोहा) दुष्टों, विघ्नों का नाशकारी होकर (अव्ययम्) रक्षक पद के योग्य (वारम्) सर्व वरणीय और शत्रुओं के वारक (पवित्रं) शत्रुरूप कण्टकशोधन के कार्य को (अति गाहते) सर्वोपरि होकर प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ भरद्वाजः। ४—६ कश्यपः। ७—९ गोतमः। १०–१२ अत्रिः। १३—१५ विश्वामित्रः। १६—१८ जमदग्निः। १९—२१ वसिष्ठः। २२—३२ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा॥ देवताः—१–९, १३—२२, २८—३० पवमानः सोमः। १०—१२ पवमानः सोमः पूषा वा। २३, २४ अग्निः सविता वा। २६ अग्निरग्निर्वा सविता च। २७ अग्निर्विश्वेदेवा वा। ३१, ३२ पावमान्यध्येतृस्तुतिः॥ छन्द:- १, २, ४, ५, ११—१३, १५, १९, २३, २५ निचृद् गायत्री। ३,८ विराड् गायत्री । १० यवमध्या गायत्री। १६—१८ भुरिगार्ची विराड् गायत्री। ६, ७, ९, १४, २०—२२, २, २६, २८, २९ गायत्री। २७ अनुष्टुप्। ३१, ३२ निचृदनुष्टुप्। ३० पुरउष्णिक्॥ द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This Soma, thus invoked, stirred and adored, arises and vibrates in the pure heart of the celebrant and, dispelling negativities, confusions and darkness of illusion, energises its favourite and imperishable spirit of humanity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमात्म्याचे दण्डदातृत्व व अविनाशित्व इत्यादी धर्माचे कथन केलेले आहे. ॥२०॥

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