ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 67/ मन्त्र 28
ऋषिः - पवित्रो वसिष्ठो वोभौः वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
प्र प्या॑यस्व॒ प्र स्य॑न्दस्व॒ सोम॒ विश्वे॑भिरं॒शुभि॑: । दे॒वेभ्य॑ उत्त॒मं ह॒विः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । प्या॒य॒स्व॒ । प्र । स्य॒न्द॒स्व॒ । सोम॑ । विश्वे॑भिः । अं॒शुऽभिः॑ । दे॒वेभ्यः॑ । उ॒त्ऽत॒मम् । ह॒विः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र प्यायस्व प्र स्यन्दस्व सोम विश्वेभिरंशुभि: । देवेभ्य उत्तमं हविः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । प्यायस्व । प्र । स्यन्दस्व । सोम । विश्वेभिः । अंशुऽभिः । देवेभ्यः । उत्ऽतमम् । हविः ॥ ९.६७.२८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 67; मन्त्र » 28
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे परमात्मन् ! त्वं (प्रप्यायस्व) मां वर्द्धय। तथा (विश्वेभिरंशुभिः) स्वीयसम्पूर्णभावैर्द्रवीभूय (प्रस्यन्दस्व) कृपालुर्भव। तथा (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (उत्तमं हविः) सर्वोत्तमदानरूपभावान् प्रदेहि ॥२८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे परमात्मन् ! आप (प्रप्यायस्व) हमको वृद्धियुक्त करें। तथा (विश्वेभिरंशुभिः) अपने सम्पूर्ण भावों से द्रवीभूत होकर (प्रस्यन्दस्व) कृपायुक्त हों। तथा (देवेभ्यः) विद्वानों के लिए (उत्तमं हविः) उत्तम दानरूपी भावों का प्रदान करें ॥२८॥
भावार्थ
परमात्मा ही एकमात्र तृप्ति का कारण है। वह अपने ज्ञान के प्रदान से हमको तृप्त करे ॥२८॥
विषय
विश्वेभि: अंशुभिः
पदार्थ
[१] हे सोम वीर्यशक्ते ! (प्रप्यायस्व) = हमारा तू सब प्रकार से उत्कृष्ट वर्धन कर। तू (विश्वेभिः) = सब (अंशुभिः) = ज्ञान की रश्मियों के द्वारा (प्रस्वन्दस्व) = हमारे शरीरों में प्रकर्षेण गतिवाला हो। [२] (देवेभ्यः) = दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिये तू (उत्तमं हविः) = सर्वोत्तम आदान करने योग्य वस्तु है [ हु आदाने, हु दानादानयोः] । पवित्र वस्तु को 'हवि' या 'हव्य पदार्थ' कहते हैं । सोम सर्वोत्तम हवि है । इसके रक्षण से दिव्यगुणों का वर्धन होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम हमारा वर्धन करे। प्रकाश की किरणों के साथ हमें प्राप्त हो। यह सोम दिव्यगुणों को प्राप्त करानेवाला है।
विषय
शासक और विद्वान् का कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (सोम) उत्तम शासक ! विद्वन् ! तू (विश्वेभिः अंशुभिः) समस्त किरणों, उपायों से (देवेभ्यः) मनुष्यों के लिये (उत्तमं हविः प्र प्यायस्व) सूर्यवत् उत्तम जल-अन्न की वृद्धि कर और (प्र स्यन्दस्व) जलवत् दुग्धादि की धार बहाया कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ भरद्वाजः। ४—६ कश्यपः। ७—९ गोतमः। १०–१२ अत्रिः। १३—१५ विश्वामित्रः। १६—१८ जमदग्निः। १९—२१ वसिष्ठः। २२—३२ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा॥ देवताः—१–९, १३—२२, २८—३० पवमानः सोमः। १०—१२ पवमानः सोमः पूषा वा। २३, २४ अग्निः सविता वा। २६ अग्निरग्निर्वा सविता च। २७ अग्निर्विश्वेदेवा वा। ३१, ३२ पावमान्यध्येतृस्तुतिः॥ छन्द:- १, २, ४, ५, ११—१३, १५, १९, २३, २५ निचृद् गायत्री। ३,८ विराड् गायत्री । १० यवमध्या गायत्री। १६—१८ भुरिगार्ची विराड् गायत्री। ६, ७, ९, १४, २०—२२, २, २६, २८, २९ गायत्री। २७ अनुष्टुप्। ३१, ३२ निचृदनुष्टुप्। ३० पुरउष्णिक्॥ द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, spirit of life and fulfilment, flow abundant, flow exuberant with all the shoots and sprouts of life and with the best yajnic offerings for the divinities. Make up our wants and deficiencies.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्माच एकमात्र तृप्तीचे कारण आहे. त्याने आपले ज्ञान प्रदान करून आम्हाला तृप्त करावे. ॥२८॥
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