ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 67/ मन्त्र 31
ऋषिः - पवित्रो वसिष्ठो वोभौः वा
देवता - पवमान्यध्येतृस्तुतिः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यः पा॑वमा॒नीर॒ध्येत्यृषि॑भि॒: सम्भृ॑तं॒ रस॑म् । सर्वं॒ स पू॒तम॑श्नाति स्वदि॒तं मा॑त॒रिश्व॑ना ॥
स्वर सहित पद पाठयः । पा॒व॒मा॒नीः । अ॒धि॒ऽएति॑ । ऋषि॑ऽभिः । सम्ऽभृ॑तम् । रस॑म् । सर्व॒म् । सः । पू॒तम् । अ॒श्ना॒ति॒ । स्व॒दि॒तम् । मा॒त॒रिश्व॑ना ॥
स्वर रहित मन्त्र
यः पावमानीरध्येत्यृषिभि: सम्भृतं रसम् । सर्वं स पूतमश्नाति स्वदितं मातरिश्वना ॥
स्वर रहित पद पाठयः । पावमानीः । अधिऽएति । ऋषिऽभिः । सम्ऽभृतम् । रसम् । सर्वम् । सः । पूतम् । अश्नाति । स्वदितम् । मातरिश्वना ॥ ९.६७.३१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 67; मन्त्र » 31
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यः) योजनः (पावमानीः) परमेश्वरस्तुतिरूपा ऋचः (अध्येति) पठति (सः) स पुरुषः (ऋषिभिः) मन्त्रद्रष्ट्रिभिः (सम्भृतम्) स्पष्टीकृतं (रसम्) ब्रह्मानन्दं (अश्नाति) भुनक्ति “रसो वै सः रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति” इति तै. २।७। अथ च (सर्वम्) सम्पूर्णं (मातरिश्वना स्वदितम्) वायुना स्वादूकृतं (पूतम्) शुद्धं पदार्थमश्नाति ॥३१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो जन (पावमानीः) परमैश्वर्य स्तुतिरूप ऋचाओं को (अध्येति) पढ़ता है, (सः) वह (ऋषिभिः) मन्त्रद्रष्टाओं से (संभृतं) स्पष्ट किया हुआ (रसं) ब्रह्मानन्द को (अश्नाति) भोगता है और (सर्वं) सम्पूर्ण (मातरश्विना स्वदितं) वायु से स्वादूकृत (पूतं) पवित्र पदार्थों को (अश्नाति) भोगता है ॥३१॥
भावार्थ
जो लोग परमात्मा के पवित्र गुणों का सहारा लेते हैं, वे ब्रह्मानन्दरस का पान करते हैं और उनके लिए वायु के पवित्र किये हुए पदार्थ मधुर रसों के प्रदाता होते हैं। तात्पर्य यह है कि वायु फलों में एक प्रकार का माधुर्य उत्पन्न करता है, उस माधुर्य के भोक्ता पुण्यात्मा ही हो सकते हैं, अन्य नहीं ॥३१॥
विषय
'पवित्र भोजन व प्राणायाम' द्वारा रोमरक्षण
पदार्थ
[१] (यः) = जो व्यक्ति (पावमानी:) = इन पवमान [सोम] विषयक ऋचाओं को (अध्येति) = पढ़ता है व स्मरण करता है, वह जानता है कि ये ऋचायें तो (ऋषिभिः) = ऋषियों से, तत्त्वद्रष्टा पुरुषों से (संभृतं रसं) = धारण किया गया वेद का सार है। ऋचाओं द्वारा सर्वोत्तम उपदेश इन पावमानी ऋचाओं में ही दिया गया है । [२] (सः) = यह व्यक्ति इन ऋचाओं में सोम के महत्त्व को पढ़ करके (सर्वं पूतं अश्नाति) = सब पवित्र भोजन को ही खाता है। सदा सात्त्विक भोजन करता हुआ यह सोम का रक्षण करनेवाला होता है। यह उस भोजन को खाता है जो (मातरिश्वना स्वदितम्) = वायु के द्वारा स्वादवाला बना दिया गया है। प्राणायाम से जाठराग्नि का वर्धन होता है, प्राणायाम से युक्त जाठराग्नि ही भोजन का ठीक से पाचन करती है । एवं, यह भोजन प्राणरूप वायु से ही स्वदित होता है। प्राणायाम शरीर में सोमशक्ति की ऊर्ध्वगति का कारण बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम सोम देवता की इन ऋचाओं को पढ़ें। सोम के महत्त्व को समझें। सोमरक्षण के लिये पवित्र सात्त्विक भोजन करें व प्राणायाम करें।
विषय
पावमानी ऋचाओं के अध्ययन का महत्व।
भावार्थ
(यः) जो (पावमानीः) पवमान अर्थात् पवित्र करने और अभिषेक किये जाने वाले के सम्बन्ध की पवमान देवताक ऋचाओं को और (ऋषिभिः) वेदमन्त्रार्थों का साक्षात् करने वाले विद्वानों द्वारा (संभृतम्) संगृहीत (रसम्) सारभूत ज्ञान को (अध्येति) अध्ययन, उनका अर्थ ज्ञान और मनन करता है (सः) वह (मातरिश्वना स्वदितम्) उत्तम मातृसमान, सर्वज्ञकल्प प्रभु या आचार्य के अधीन श्वास लेने, जीवन धारण करने वाले उत्तम शिष्यगण द्वारा (स्वदितं) सुख से ग्रहण करने योग्य (सर्वं) समस्त (पूतं) पवित्र ज्ञान को अन्न के समान ही (अश्नाति) ग्रहण करता है और उसका उपभोग लेता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ भरद्वाजः। ४—६ कश्यपः। ७—९ गोतमः। १०–१२ अत्रिः। १३—१५ विश्वामित्रः। १६—१८ जमदग्निः। १९—२१ वसिष्ठः। २२—३२ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा॥ देवताः—१–९, १३—२२, २८—३० पवमानः सोमः। १०—१२ पवमानः सोमः पूषा वा। २३, २४ अग्निः सविता वा। २६ अग्निरग्निर्वा सविता च। २७ अग्निर्विश्वेदेवा वा। ३१, ३२ पावमान्यध्येतृस्तुतिः॥ छन्द:- १, २, ४, ५, ११—१३, १५, १९, २३, २५ निचृद् गायत्री। ३,८ विराड् गायत्री । १० यवमध्या गायत्री। १६—१८ भुरिगार्ची विराड् गायत्री। ६, ७, ९, १४, २०—२२, २, २६, २८, २९ गायत्री। २७ अनुष्टुप्। ३१, ३२ निचृदनुष्टुप्। ३० पुरउष्णिक्॥ द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Whoever studies the sanctifying Rks, nectar preserved by the sages, he tastes the food seasoned and sanctified by the life breath of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक परमेश्वराच्या पवित्र गुणांचा आधार घेतात ते ब्रह्मानंद रसाचे पान करतात. वायूमुळे पवित्र झालेले पदार्थ त्यांच्यासाठी मधुर रस प्रदान करतात. वायू फळांमध्ये एक प्रकारचे माधुर्य उत्पन्न करतो. त्या माधुर्याचे भोक्ते पुण्यात्मेच होऊ शकतात, इतर नाही. ॥३१॥
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