ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 67/ मन्त्र 5
इन्दो॒ व्यव्य॑मर्षसि॒ वि श्रवां॑सि॒ वि सौभ॑गा । वि वाजा॑न्त्सोम॒ गोम॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्दो॒ इति॑ । वि । अव्य॑म् । अ॒र्ष॒सि॒ । वि । श्रवां॑सि । वि । सौभ॑गा । वि । वाजा॑न् । सो॒म॒ । गोऽम॑तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्दो व्यव्यमर्षसि वि श्रवांसि वि सौभगा । वि वाजान्त्सोम गोमतः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्दो इति । वि । अव्यम् । अर्षसि । वि । श्रवांसि । वि । सौभगा । वि । वाजान् । सोम । गोऽमतः ॥ ९.६७.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 67; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) सर्वैश्वर्यसम्पन्न ! (सोम) हे परमेश्वर ! (अव्यम्) अव्ययं (विश्रवांसि) विशेषयशस्तथा (विसौभगा) अधिकसौभाग्यं तथा (गोमतो वि वाजान्) ऐश्वर्यवदधिकबलं च (व्यर्षसि) त्वं ददासि ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) सर्वैश्वर्यसंपन्न ! (सोम) परमात्मन् ! (अव्यं) अव्यय (विश्रवांसि) विशेष यश को तथा (विसौभगा) विशेष सौभाग्य को और (गोमतो वि वाजान्) ऐश्वर्यवाले विशेष बल को (व्यर्षसि) आप देते हैं ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा सत्कर्मों द्वारा जिस पुरुष को अपने ऐश्वर्य का पात्र समझता है, उसे अनन्त प्रकार के बल, सौभाग्य तथा यश का प्रदान करता है ॥५॥
विषय
गोमान् वाज
पदार्थ
[१] हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! तू (अव्यम्) = [अव् +य] विषय-वासनाओं के आक्रमण से अपना रक्षण करनेवालों में उत्तम पुरुष को वि अर्षसि विशेष रूप से प्राप्त होता है । इसे प्राप्त होकर तू (श्रवांसि) = ज्ञानों को वि [अर्षसि ] = प्राप्त कराता है। सौभगा सब सौभाग्यों को (वि) = विशेषरूप से प्राप्त कराता है। [२] हे सोम-वीर्यशक्ते ! तू (गोमतः) = प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियोंवाले (वाजान्) = बलों को (वि) = प्राप्त कराता है। तेरे रक्षण से इन्द्रियाँ प्रशस्त बनती हैं, और शक्ति प्राप्त होती है।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम 'ज्ञान, सौभाग्य, शक्ति व प्रशस्तेन्द्रियों' को प्राप्त कराता है।
विषय
उत्तम विद्वान् उपदेष्टा के कर्त्तव्य उनके अनेकानेक कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन् ! उत्तम पुरुष ! तू (अव्यम्) इस भूमि के उत्तम धन को (वि अर्षसि) विविध प्रकार से प्राप्त कर। (श्रवांसि वि) नाना ज्ञान, अन्न और कीर्त्तियां प्राप्त कर। (सौभगा वि अर्षसि) नाना सौभाग्य प्राप्त कर। हे (सोम) उत्तम शासक ! तू (गोमतः वाजान् वि अर्षसि) वाणीसम्पन्न विद्वान् से ज्ञानों और भूमि के स्वामी कृषकार से अन्नों को विविध प्रकार से प्राप्त कर। इति त्रयोदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ भरद्वाजः। ४—६ कश्यपः। ७—९ गोतमः। १०–१२ अत्रिः। १३—१५ विश्वामित्रः। १६—१८ जमदग्निः। १९—२१ वसिष्ठः। २२—३२ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा॥ देवताः—१–९, १३—२२, २८—३० पवमानः सोमः। १०—१२ पवमानः सोमः पूषा वा। २३, २४ अग्निः सविता वा। २६ अग्निरग्निर्वा सविता च। २७ अग्निर्विश्वेदेवा वा। ३१, ३२ पावमान्यध्येतृस्तुतिः॥ छन्द:- १, २, ४, ५, ११—१३, १५, १९, २३, २५ निचृद् गायत्री। ३,८ विराड् गायत्री । १० यवमध्या गायत्री। १६—१८ भुरिगार्ची विराड् गायत्री। ६, ७, ९, १४, २०—२२, २, २६, २८, २९ गायत्री। २७ अनुष्टुप्। ३१, ३२ निचृदनुष्टुप्। ३० पुरउष्णिक्॥ द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indu, lord of peace, beauty and glory, Soma, you bring and bless us with all foods, energy, honour and fame, all good fortune and victories of the wealth of lands and cows, literature and culture of imperishable value.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा सत्कर्मांद्वारे ज्या पुरुषाला आपल्या ऐश्वर्याचे पात्र समजतो, त्याला अनंत प्रकारचे बल, सौभाग्य व यश प्रदान करतो. ॥५॥
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