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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 67/ मन्त्र 21
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यदन्ति॒ यच्च॑ दूर॒के भ॒यं वि॒न्दति॒ मामि॒ह । पव॑मान॒ वि तज्ज॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अन्ति॑ । यत् । च॒ । दू॒र॒के । भ॒यम् । वि॒न्दति॑ । माम् । इ॒ह । पव॑मान । वि । तत् । ज॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदन्ति यच्च दूरके भयं विन्दति मामिह । पवमान वि तज्जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अन्ति । यत् । च । दूरके । भयम् । विन्दति । माम् । इह । पवमान । वि । तत् । जहि ॥ ९.६७.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 67; मन्त्र » 21
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पवमान) सर्वपवित्रयितः परमात्मन् ! (मामिह) मामस्मिन् संसारे (यत् भयम्) यत्किमपि भयं (विन्दति) प्राप्तं वर्तते (च) अथ च (यत्) यद्विघ्नं (अन्ति) सन्निकटं वर्तते तथा (दूरके) दूरमस्ति (तत्) तान् (विजहि) सर्वथा नाशय ॥२१॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पवमान) सबको पवित्र करनेवाले परमात्मन् ! आप (मामिह) मुझको इस संसार में (यद्) जो (भयं) भय (विन्दन्ति) प्राप्त हैं (च) और (यद्) जो विघ्न (अन्ति) मेरे समीप तथा (दूरके) दूर हैं (तत्) उनको (विजहि) सर्वथा नाश करें ॥२१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा से भय और विघ्नों के नाश करने की प्रार्थना की गयी है ॥२१॥

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    विषय

    इहलोक व परलोक सम्बद्धमय का विनाश

    पदार्थ

    [१] हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले सोम ! (यद्) = जो (अन्ति) = इस समीपस्थ लोक-विषयक 'शरीर रोग' आदि का (भयम्) = भय (माम्) = मुझे (इह) = इस जीवन में (विन्दति) = प्राप्त होता है, तू (तत्) = उसे (विजहि) = विनष्ट कर । गत मन्त्र के अनुसार तू 'रक्षोहा' है, इन रोगकृमि रूप राक्षसों को तू विनष्ट कर । [२] (यत् च) = और जो दूरके दूरके, परलोक के विषय में भय मुझे प्राप्त होता है, उस 'काम-क्रोध-लोभ' से आक्रान्त होने के कारण परत्र अशुभ गति के भय को भी तू ही नष्ट कर । काम, क्रोध, लोभ आदि राक्षसी भावों का भी विनाशक तू ही है।

    भावार्थ

    भावार्थ - रोगकृमियों को नष्ट करके सोम ऐहिक भय को समाप्त करता है और काम- -क्रोध- लोभ को समाप्त करके आमुष्यिक भय को दूर करता है । सोमरक्षण से उभयलोक का कल्याण होता है । एवं शरीर मन में पवित्र बना हुआ यह 'पवित्र' कहता है कि-

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    विषय

    वह किनको दण्ड दे।

    भावार्थ

    हे (पवमान) शत्रुकण्टक के शोधने हारे ! हे अभिषेक पाने वाले जन ! (यद् भयम् अन्ति) जो भय समीप या (दूरके) दूर देश में भी (माम्) मुझे (इह विन्दति) इस राष्ट्र में प्राप्त होता है, तू (तत् वि जहि) उसे विशेष रूप से नष्ट कर। वा जो मुझे भयादि देता है उसे दण्डित कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ भरद्वाजः। ४—६ कश्यपः। ७—९ गोतमः। १०–१२ अत्रिः। १३—१५ विश्वामित्रः। १६—१८ जमदग्निः। १९—२१ वसिष्ठः। २२—३२ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा॥ देवताः—१–९, १३—२२, २८—३० पवमानः सोमः। १०—१२ पवमानः सोमः पूषा वा। २३, २४ अग्निः सविता वा। २६ अग्निरग्निर्वा सविता च। २७ अग्निर्विश्वेदेवा वा। ३१, ३२ पावमान्यध्येतृस्तुतिः॥ छन्द:- १, २, ४, ५, ११—१३, १५, १९, २३, २५ निचृद् गायत्री। ३,८ विराड् गायत्री । १० यवमध्या गायत्री। १६—१८ भुरिगार्ची विराड् गायत्री। ६, ७, ९, १४, २०—२२, २, २६, २८, २९ गायत्री। २७ अनुष्टुप्। ३१, ३२ निचृदनुष्टुप्। ३० पुरउष्णिक्॥ द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, pure and purifying spirit of divinity, whatever fear there be that is far distant or that which is close at hand and assails me here, pray dispel and destroy the same.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमेश्वराला भय व विघ्नांचा नाश करण्याची प्रार्थना केलेली आहे. ॥२१॥

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