यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 1
ऋषि: - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
622
ऋचं॒ वाचं॒ प्र प॑द्ये॒ मनो॒ यजुः॒ प्र प॑द्ये॒ साम॑ प्रा॒णं प्र प॑द्ये॒ चक्षुः॒ श्रोत्रं॒ प्र प॑द्ये। वागोजः॑ स॒हौजो॒ मयि॑ प्राणापा॒नौ॥१॥
स्वर सहित पद पाठऋच॑म्। वाच॑म्। प्र। प॒द्ये॒। मनः॑। यजुः॑। प्र। प॒द्ये॒। साम॑। प्रा॒णम्। प्र। प॒द्ये॒। चक्षुः॑। श्रोत्र॑म्। प्र। प॒द्ये॒ ॥ वाक्। ओजः॑। स॒ह। ओजः॑। मयि॑। प्रा॒णा॒पा॒नौ ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋचँवाचम्प्र पद्ये मनो यजुः प्र पद्ये साम प्राणम्प्र पद्ये चक्षुः श्रोत्रम्प्र पद्ये । वागोजः सहौजो मयि प्राणापानौ ॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋचम्। वाचम्। प्र। पद्ये। मनः। यजुः। प्र। पद्ये। साम। प्राणम्। प्र। पद्ये। चक्षुः। श्रोत्रम्। प्र। पद्ये॥ वाक्। ओजः। सह। ओजः। मयि। प्राणापानौ॥१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वत्सङ्गेन किञ्जायत इत्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यथा मयि प्राणपानौ दृढौ भवेतां मम वागोजः प्राप्नुयात् तया ताभ्यां च सहाऽहमोजः प्राप्नुयामृचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये साम प्राणं प्रपद्ये चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये तथा यूयमेतानि प्राप्नुत॥१॥
पदार्थः
(ऋचम्) प्रशंसनीयमृग्वेदम् (वाचम्) वाणीम् (प्र) (पद्ये) प्राप्नुयाम् (मनः) मननात्मकं चित्तम् (यजुः) यजुर्वेदम् (प्र) (पद्ये) (साम) सामवेदम् (प्राणम्) (प्र) (पद्ये) (चक्षुः) चष्टे पश्यति येन तत् (श्रोत्रम्) शृणोति येन तत् (प्र) (पद्ये) (वाक्) वाणी (ओजः) मानसं बलम् (सह) (ओजः) शारीरं बलम् (मयि) आत्मनि (प्राणापानौ) प्राणश्चाऽपानश्च तावुच्छ्वासनिःश्वासौ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो! युष्मत्सङ्गेन मम ऋगिव प्रशंसनीया वाग्यजुरिव मनः साम इव प्राणः सप्तदशतत्त्वात्मकं लिङ्गं शरीरञ्च स्वस्थं निरुपद्रवं समर्थं भवतु॥१॥
हिन्दी (1)
विषय
अब छत्तीसवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है, इसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के संग से क्या होता है, इस विषय को कहते हैं॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे (मयि) मेरे आत्मा में (प्राणापानौ) प्राण और अपान ऊपर-नीचे के श्वास दृढ़ हों मेरी (वाक्) वाणी (ओजः) मानस बल को प्राप्त हो, उस वाणी और उन श्वासों के (सह) साथ मैं (ओजः) शरीर बल को प्राप्त होऊं (ऋचम्) ऋग्वेद रूप (वाचम्) वाणी को (प्र, पद्ये) प्राप्त होऊं (मनः) मनन करनेवाले के तुल्य (यजुः) यजुर्वेद को (प्र, पद्ये) प्राप्त होऊं (प्राणम्) प्राण की क्रिया अर्थात् योगाभ्यासादिक उपासना के साधक (साम) सामवेद को (प्र, पद्ये) प्राप्त होऊं (चक्षुः) उत्तम नेत्र और (श्रोत्रम्) श्रेष्ठ कान को (प्र, पद्ये) प्राप्त होऊं, वैसे तुम लोग इन सबको प्राप्त होओ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो! तुम लोगों के संग से मेरी ऋग्वेद के तुल्य प्रशंसनीय वाणी, यजुर्वेद के समान मन, सामवेद के सदृश प्राण और सत्रह तत्त्वों से युक्त लिङ्ग शरीर स्वस्थ, सब उपद्रवों से रहित और समर्थ होवे॥१॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! तुमच्या संगतीने माझी वाणी ऋग्वेदाप्रमाणे प्रशंसनीय व्हावी. यजुर्वेदाप्रमाणे मन बनावे व सामवेदाप्रमाणे योगाभ्यासाने युक्त असे प्राण बनावेत. सतरा तत्त्वांनी युक्त असे सूक्ष्म शरीर उपद्रवरहित होऊन स्वस्थ व समर्थ बनावे.
English (2)
Meaning
May in breath and out breath be strengthened in my soul. May my speech acquire mental strength, whereby I may gain physical strength. May my speech be commendable like the Rig Veda, my mind reflective like the Yajur Veda. May I master the Sama Veda, the expositor of the science of yoga. May I possess good eyes and ears.
Meaning
I arise and come to Rigveda, voice of Divinity. I come to Yajurveda, mind and resolution divine. I come to Samaveda, energy and ecstasy divine. I come to Atharva-veda, vision and vibration of Divinity. That speech is my light and glory. That light and mind is my strength and spirit of courage and fortitude. By virtue of the divine, the prana and apana energy is my real might.
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