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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 11
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    49

    समि॑न्धते॒ संक॑सुकं स्व॒स्तये॑ शु॒द्धा भव॑न्तः॒ शुच॑यः पाव॒काः। जहा॑ति रि॒प्रमत्येन॑ एति॒ समि॑द्धो अ॒ग्निः सु॒पुना॑ पुनाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । इ॒न्ध॒ते॒ । सम्ऽक॑सुकम् । स्व॒स्तये॑ । शु॒ध्दा: । भव॑न्त: । शुच॑य: । पा॒व॒का: । जहा॑ति । रि॒प्रम् । अति॑ । एन॑: । ए॒ति॒ । सम्ऽइ॑ध्द: । अ॒ग्नि: । सु॒ऽपुना॑ । पु॒ना॒ति॒ ॥२.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिन्धते संकसुकं स्वस्तये शुद्धा भवन्तः शुचयः पावकाः। जहाति रिप्रमत्येन एति समिद्धो अग्निः सुपुना पुनाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । इन्धते । सम्ऽकसुकम् । स्वस्तये । शुध्दा: । भवन्त: । शुचय: । पावका: । जहाति । रिप्रम् । अति । एन: । एति । सम्ऽइध्द: । अग्नि: । सुऽपुना । पुनाति ॥२.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (शुद्धाः) [अन्तःकरण से] शुद्ध, (शुचयः) [बाहिरी आचरण से] पवित्र और (पावकाः) [दूसरों के] पवित्र करनेवाले (भवन्तः) होते हुए मनुष्य (संकसुकम्) यथावत् शासक पुरुष को (स्वस्तये) अच्छी सत्ता [कल्याण] के लिये (सम्) यथाविधि (इन्धते) प्रकाशमान करते हैं। (समिद्धः) ठीक-ठीक प्रकाशित (अग्निः) अग्नि [समान तेजस्वी पुरुष] (रिप्रम्) पाप को (जहाति) छोड़ता है, (एनः) दोष को (अति) उल्लङ्घन कर के (एति) चलता है और (सुपुना) सुन्दर शुद्धि करनेवाले कर्म से [दूसरों को] (पुनाति) शुद्ध करता है ॥११॥

    भावार्थ

    जब धर्मात्मा विद्वान् लोग भीतर और बाहिर से अपना आचरण शुद्ध कर के मनुष्य को विद्या आदि सद्गुणों से तेजस्वी बनाते हैं, तब वे पुरुष पाप से बच कर दूसरों को शुभ मार्ग पर चलाते हैं ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(सम्) सम्यक् (इन्धते) प्रकाशयन्ति (संकसुकम्) अ० ५।३१।९। सम्+कस गतौ शासने च−ऊक, छान्दसो ह्रस्वः। सम्यक् शासकं पुरुषम् (स्वस्तये) सुसत्तायै। कल्याणाय (शुद्धाः) अन्तःकरणेन पवित्राः (भवन्तः) वर्तमानाः सन्तः (शुचयः) बहिराचारेण शुद्धाः (पावकाः) अन्येषां शोधकाः (जहाति) त्यजति (रिप्रम्) पापम् (अति) अतीत्य (एनः) दोषम् (एति) गच्छति (समिद्धः) सम्यग् दीप्तः (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी पुरुषः (सुपुना) पूञ् शोधने−क्विप्। ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य। पा० १।२।४७। इति ह्रस्वः। सम्यक् शोधकेन कर्मणा (पुनाति) शोधयति ॥

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    विषय

    'संकसुक' अग्नि का दीपन

    पदार्थ

    १. सद्गृहस्थ लोग (स्वस्तये) = कल्याण की प्राप्ति के लिए (संकसुकम्) = उत्तम [सम्यक्] गति देनेवाले उस ब्रह्माण्ड के शासक [कस गतौ शासने च] प्रभु को (समिन्धते) = अपने हृदयदेश में समिद्ध करते हैं। इसप्रकार वे (शुद्धाः भवन्तः) = शुद्ध होते हुए-अपना शोधन करते हुए (शुचय:) = पवित्र मनोवृत्तिवाले बनते हैं। (पावका:) = अपने सम्पर्क में आनेवाले को भी पवित्र करते हैं। २. यह हृदयदेश में प्रभु का दर्शन करनेवाला व्यक्ति (रिप्रम् जहाति) = दोष को त्यागता है। (एन: अति एति) = पाप को लाँघ जाता है। (समिद्धः अग्निः) = हृदयदेश में समिद्ध हुआ-हुआ यह अग्रणी प्रभु (सुपुना) = उत्तम पावन क्रिया से (पुनाति) = हमारे जीवनों को पवित्र कर देते हैं।

    भावार्थ

    जब हम हदयदेश में प्रभु को समिद्ध करते हैं तब वे प्रभु हमारे जीवनों को पवित्र कर देते हैं। यह प्रभु सम्पर्कवाला व्यक्ति दोषों को त्यागता है-पापों से ऊपर उठता है।

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    भाषार्थ

    (स्वस्तये) कल्याण के लिये [मृतक के सम्बन्धी] (संकसुकम्) सम्यक् अर्थात् पूर्णरूप में शासन करने वाली श्मशानाग्नि को (समिन्धते) सम्यक्तया प्रदीप्त करते हैं, तदनन्तर (शुद्धाः भवन्तः) स्नान द्वारा शुद्ध होते, और (शुचयः पावकाः) पवित्र करने वाली यज्ञिय अग्नियों के सदृश पवित्र होते हैं। [गृहशुद्धि के लिये] (समिद्धः अग्निः) प्रदीप्त किया यज्ञिय अग्नि (रिप्रम्) अशुद्धिरूपी मल को (जहाति) दूर करती या छुड़ाती है, (एनः अत्येति) पापी रोगकीटाणु का अतिक्रमण करती, तथा (सुपुना) उत्तमतया पवित्र करने वाली ज्वाला द्वारा (पुनाति) पवित्र कर देती है।

    टिप्पणी

    [सङ्कसुकम् = सम् + कस् (शासने, कसि गतिशासनयोः), मृत्यु होने पर क्रव्याद्-अग्नि अर्थात् श्मशानाग्नि सम्यक् शिक्षा देती है। समिन्धते = इन्धन तथा यथोचित सामग्री के द्वारा प्रदीप्त करते हैं। शव की अन्त्येष्टि के पश्चात् स्नान द्वारा तथा मन्त्र जाप द्वारा शुद्ध और पवित्र हो कर, यज्ञाग्नि को प्रदीप्त कर गृहशुद्धि करनी चाहिये। इस द्वारा रोग द्वारा उत्पन्न हुए मलादि दूर जाते हैं। मृत्यु बड़ा शिक्षा गुरु१ है, जिसे देख कर कई बार जीवन में सुधार होता है, और व्यक्ति ऐसे कर्मों के करने से उपरत हो जाता है जो कि यक्ष्म के उत्पादक हों, और शुद्धाचरण वाला हो जाता है]। [१. इस सम्बन्ध में कठोपनिषद् में नचिकेता और मृत्यु का संवाद द्रष्टव्य है।]

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (शुचयः) शुद्ध चित्त वाले (पावकाः) अन्यों को भी पाप से शुद्ध करने वाले, (शुद्धाः भवन्तः) स्वयं शुद्ध रहते हुए, विद्वान् लोग (स्वस्तये) संसार के कल्याण के लिये (संकसुकम्) उत्तम शासक को अग्नि के समान (सम् इन्धते) खूब प्रदीप्त करते हैं। उसमें पड़ कर अपराधी अपने (रिप्रम्) पाप कर्म को (जहाति) छोड़ देता है और (एनः अति एति) अपने दुष्ट पाप से ऊपर उठ जाता है। और (समिद्धः) खूब प्रदीप्त (अग्निः) अग्नि के समान दुष्टों का संतापकारक राजा स्वयं (सु-पुना) उत्तम रीति से पवित्र करने वाला ही पापी को भी (पुनाति) पवित्र कर देता है। प्रेतपक्ष में—(शुचयः पावकाः) शुद्ध आहवनीय आदि पवित्र (पावकाः) अग्नियें ही स्वयं शुद्ध होते हुए ‘संकसुक’ क्रव्याद अग्नि को कल्याण के लिये करते हैं। इसमें शव के डाल देने से भी मृत आत्मा का संस्कार होता है, वह पाप छोड़ देता है और ऊंचा हो जाता है। वह नरमेध की पवित्र अग्नि एवं उसके समान पवित्र सुपुना=परमात्मा ही उसको पवित्र करता है।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘रिधमत्येनेति’ (प्र०) प्रायः ‘संकुसिकः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    People light the fire, all cotrolling, catalytic, and separating the body from the soul, freeing the pure from the impure, for the sake of the good of life. They become cleansed, pure, and purifiers of the self. The spirit gives up the smear of the material body and passes beyond existential involvements. Thus does the lighted fire, pure and purifier, purify the spirit.

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    Translation

    They kindle the devouring one in order to well-being, becoming cleansed, purifyng; he abandons evil, passes over sin; Agni, kindled, purifies with a good purifier.

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    Translation

    The men free from all sorts of material and spiritual vices, pure in nature and action and becoming the purifier of others enkindle the Sanksuk fire for the benefit of all. This enkinled fire make all leave evils, overpowers bad things and purifies the things by its purificatory power.

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    Translation

    Learned persons pure in mind, purifiers of others, clean in body, for the good of humanity, kindle a good ruler like fire. Under his sway, a sinner abandons his sin, and gives up his impurity. The refulgent ruler, an efficient purifier, purifies the sinner.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(सम्) सम्यक् (इन्धते) प्रकाशयन्ति (संकसुकम्) अ० ५।३१।९। सम्+कस गतौ शासने च−ऊक, छान्दसो ह्रस्वः। सम्यक् शासकं पुरुषम् (स्वस्तये) सुसत्तायै। कल्याणाय (शुद्धाः) अन्तःकरणेन पवित्राः (भवन्तः) वर्तमानाः सन्तः (शुचयः) बहिराचारेण शुद्धाः (पावकाः) अन्येषां शोधकाः (जहाति) त्यजति (रिप्रम्) पापम् (अति) अतीत्य (एनः) दोषम् (एति) गच्छति (समिद्धः) सम्यग् दीप्तः (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी पुरुषः (सुपुना) पूञ् शोधने−क्विप्। ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य। पा० १।२।४७। इति ह्रस्वः। सम्यक् शोधकेन कर्मणा (पुनाति) शोधयति ॥

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