अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 41
ऋषिः - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
53
ता अ॑ध॒रादुदी॑ची॒राव॑वृत्रन्प्रजान॒तीः प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑। पर्व॑तस्य वृष॒भस्याधि॑ पृ॒ष्ठे नवा॑श्चरन्ति स॒रितः॑ पुरा॒णीः ॥
स्वर सहित पद पाठता:। अ॒ध॒रात् । उदी॑ची: । आ । अ॒व॒वृ॒त्र॒न् । प्र॒ऽजा॒न॒ती: । प॒थिऽभि॑: । दे॒व॒ऽयानै॑: । पर्व॑तस्य । वृ॒ष॒भस्य॑ । अधि॑ । पृ॒ष्ठे । नवा॑: । च॒र॒न्ति॒ । स॒रित॑: । पु॒रा॒णी: ॥२.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
ता अधरादुदीचीराववृत्रन्प्रजानतीः पथिभिर्देवयानैः। पर्वतस्य वृषभस्याधि पृष्ठे नवाश्चरन्ति सरितः पुराणीः ॥
स्वर रहित पद पाठता:। अधरात् । उदीची: । आ । अववृत्रन् । प्रऽजानती: । पथिऽभि: । देवऽयानै: । पर्वतस्य । वृषभस्य । अधि । पृष्ठे । नवा: । चरन्ति । सरित: । पुराणी: ॥२.४१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अधरात्) नीचे से (उदीचीः) ऊँची चलती हुई, (प्रजानतीः) बहुत जाननेवाली (ताः) वे [आप्त प्रजाएँ−म० ४०] (देवयानैः) विद्वानों के चलने योग्य (पथिभिः) मार्गों से (आ अववृत्रन्) घूम कर आई हैं। (वृषभस्य) बरसते हुए (पर्वतस्य) पहाड़ की (पृष्ठे अधि) पीठ के ऊपर (नवाः) नीवन (सरितः) नदियाँ (पुराणीः) पुरानी [नदियों] को (चरन्ति) चली जाती हैं ॥४१॥
भावार्थ
सब मनुष्य वेद शास्त्रों की मर्यादा पर चलकर, छोटी दशा से बड़े होते हैं, जैसे बरसते हुए पहाड़ से छोटी-छोटी नवीन नदियाँ निकल कर पुरानी बड़ी नदियों में मिलकर बड़ी होती जाती हैं ॥४१॥
टिप्पणी
४१−(ताः) आपः। आप्ताः प्रजाः−म० ४०। (अधरात्) निम्नपदात् (उदीचीः) उपरिगच्छन्त्यः (आ अववृत्रन्) म० २२। आवृता अभवन् (प्र जानतीः) बहुविदुष्यः (पथिभिः) मार्गैः (देवयानैः) विद्वद्भिर्गन्तव्यैः (पर्वतस्य) शैलस्य (वृषभस्य) वृषु सेचने−अभच् कित्। वर्णशीलस्य (अधि) उपरि (पृष्ठे) उच्चप्रदेशे, (नवाः) नवीनाः (चरन्ति) प्राप्नुवन्ति (सरितः) नद्यः (पुराणीः) पुरातनीर्नदीः ॥
विषय
प्रजानती: [आपः]
पदार्थ
१. (ता:) = वे (प्रजानती:) = प्रकृष्ट ज्ञानवाली आप्त प्रजाएँ (अधरात) = निम्न मागों को छोड़कर (उदीची:) = उत्कृष्ट मार्गों से गति करनेवाली होती हुई (देवयानैः पथिभिः) = देवयान मार्गों से (आववृत्रन्) = कर्मों में आवर्तनवाली होती हैं। ज्ञानी पुरुष सदा निम्न मार्गों को छोड़कर उत्कृष्ट मागों से चलते हैं। ये आसुरभावों को त्यागकर दैवी प्रवृत्तियों को अपनाते हैं। २. (पर्वतस्य) = पूरण करनेवाले (वृषभस्य) = सुखों के वर्षक प्रभु के (अधिपृष्ठे) = आश्रय में प्रभु की गोद में (पुराणी: सरित:) = क्षीण [Decayed] हुई-हुई नदियाँ फिर से (नवा: चरन्ति) = नवीन होकर गतिवाली होती हैं। जैसे वृष्टिवाले पर्वत पर क्षीण हुई-हुई नदियाँ फिर से जलपूर्ण होकर प्रवाहवाली होती हैं, उसी प्रकार हमारा पूर्ण करनेवाले, सुखों के वर्षक प्रभु के आश्रय में हमारा निम्न स्तर का जीवन पुन: उच्च स्तर का बन जाता है। हम नीचे से ऊपर आ जाते हैं। आसुरमार्ग को छोड़कर दिव्यमार्ग का आश्रय करते हैं।'
भावार्थ
प्रभु की गोद में हम निम्न मार्ग को छोड़कर उत्कृष्ट मार्ग पर गति करनेवाले बनें। प्रभुस्मरण हमें देवयान में प्रेरित करे। क्षीण हुए-हुए हम फिर से पूर्ण हो जाएँ।
भाषार्थ
(ताः) वे आपः [अर्थात् जल] (प्रजानतीः) मानो पथों को जानती हुई सी (देवयानः पथिभिः) वायुदेव के जाने-आने के पथों द्वारा (अधराद्) नीचे से (उदीचीः) ऊपर की ओर अञ्चन अर्थात् गति करती, और ऊपर से नीचे की ओर (आववृत्रन्) आवर्तन करती हैं, आती हैं। (पर्वतस्य) पर्वत की ओर (वृषभस्य) वर्षाकारी मेघ के (पृष्ठे अधि) पीठ पर मानो (पुराणीः सरितः) पुरानी नदियां (नवाः) नया नया रूप धारण करके (चरन्ति) विचरती हैं।
टिप्पणी
[वृषभस्य = वृषु वर्षणे। देवयानैः = वायु देव जिस ओर गति करता है, मेघस्थ आपः भी उसी ओर गति करते हैं। मन्त्र ४० में आपः का वर्णन हुआ है। पीने तथा जलचिकित्सा के लिये वर्षा जल तथा पर्वत से उतरता जल उत्तम होता है। पृथिवी पर बहता बहता मलिन हो जाता है।]
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(ताः) वे पूर्वोक्न आप्त जनों की श्रेणियां, स्वच्छ जल-धाराओं के समान (अधरात्) नीचे से (उदीचीः) ऊपर की तरफ़ जाती हुई (प्रजानतीः) उत्कृष्ट ज्ञान सम्पन्न होकर (देवयानैः पथिभिः) विद्वानों से गमन करने योग्य मोक्ष मार्ग के (पथिभिः) मार्गों और साधनों से (आ अववृत्रन्) वृत्ति, आचरण करती हैं। (पर्वतस्य अधि पृष्ठे सरितः) पर्वत के पीठ पर जैसे सदा नयी जल-धाराएं अति प्राचीन काल से बहा करती हैं उसी प्रकार (वृषभस्य) सर्वश्रेष्ठ समस्त सुखों के वर्षा करने हारे परमेश्वर के (अधि पृष्ठे) आश्रय में (पुराणीः नवाः चरन्ति) अति पुरातन काल के और नये भी आप्तजन विचरते हैं।
टिप्पणी
(प्र०) ‘ताधरात्’ (तृ०) ‘ऋषभस्य’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
Those streams of the waters of life flow from the earth below and rise on high to heaven, and they flow back from heaven on high to life on earth below, and knowing thus all the paths of existence they circulate in the cycle of birth, death and rebirth. From top of the generous cloud on high they shower on top of the mountain and, formed anew into streams and rivers, they flow on, streams of life, old but ancient and eternal, ever new. (Thus are the ravages of Kravyadagni washed out into life anew.)
Translation
These fore-knowing ones have turned hither upward from below by roads that the gods go upon; upon the back of the virile mountain the ancient streams go about new.
Translation
By paths travelled by the sun-rays and winds these waters available by all flow from below and mount upward. The old rivers on the high summit of raining mountain flow a fresh and a new.
Translation
The highly learned sages, morally marching upward from a low position, equipped with lofty knowledge, behave like learned persons who resort o the means that lead to salvation. Just as on the summit of the raining mountain fresh streams are flowing from times immemorial, so on the support of the Benevolent God, the Rainer of all sorts of joys, roam about the aged and new young sages.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४१−(ताः) आपः। आप्ताः प्रजाः−म० ४०। (अधरात्) निम्नपदात् (उदीचीः) उपरिगच्छन्त्यः (आ अववृत्रन्) म० २२। आवृता अभवन् (प्र जानतीः) बहुविदुष्यः (पथिभिः) मार्गैः (देवयानैः) विद्वद्भिर्गन्तव्यैः (पर्वतस्य) शैलस्य (वृषभस्य) वृषु सेचने−अभच् कित्। वर्णशीलस्य (अधि) उपरि (पृष्ठे) उच्चप्रदेशे, (नवाः) नवीनाः (चरन्ति) प्राप्नुवन्ति (सरितः) नद्यः (पुराणीः) पुरातनीर्नदीः ॥
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