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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 39
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    41

    ग्राह्या॑ गृ॒हाः सं सृ॑ज्यन्ते स्त्रि॒या यन्म्रि॒यते॒ पतिः॑। ब्र॒ह्मैव वि॒द्वाने॒ष्यो॒ यः क्र॒व्यादं॑ निरा॒दध॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ग्राह्या॑: । गृ॒हा: । सम् । सृ॒ज्य॒न्ते॒ । स्त्रि॒या: । यत् । म्रि॒यते॑ । पति॑: । ब्र॒ह्मा । ए॒व । वि॒द्वान् । ए॒ष्य᳡: ।य: । क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । नि॒:ऽआ॒दध॑त् ॥२.३९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ग्राह्या गृहाः सं सृज्यन्ते स्त्रिया यन्म्रियते पतिः। ब्रह्मैव विद्वानेष्यो यः क्रव्यादं निरादधत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ग्राह्या: । गृहा: । सम् । सृज्यन्ते । स्त्रिया: । यत् । म्रियते । पति: । ब्रह्मा । एव । विद्वान् । एष्य: ।य: । क्रव्यऽअदम् । नि:ऽआदधत् ॥२.३९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 39
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (गृहाः) घर (ग्राह्या) ग्राही [जकड़नेवाली शृङ्खला आदि बन्धन] से (संसृज्यन्ते) संयुक्त हो जाते हैं, (यत्) जब (स्त्रियाः) स्त्री का (पतिः) पति (म्रियते) प्राण छोड़ देता है [निरुद्यमी हो जाता है]। [इस लिये] (ब्रह्मा) ब्रह्मा [चारों वेदवेत्ता पुरुष] (एव) ही (विद्वान्) विद्वान् [पति] (एष्यः) खोजना चाहिये, (यः) जो (क्रव्यादम्) मांसभक्षक [दोष] को (निरादधत्) हटा देवे ॥३९॥

    भावार्थ

    विदुषी स्त्री के अविद्वान् निरुद्यमी पति होने से घर में विपत्ति आ जाती है, इसलिये स्त्री विदुषी होकर पूर्ण विद्वान् से विवाह करके आपत्ति से बच कर सदा सुखी रहे ॥३९॥

    टिप्पणी

    ३९−(ग्राह्या) अ० २।९।१। ग्रह आदाने−इञ्। ग्राहकेण बन्धनेन शृङ्खलादिना (गृहाः) गेहानि (संसृज्यन्ते) संयुज्यन्ते (स्त्रियाः) गृहपत्न्याः (यत्) यदा (म्रियते) प्राणांस्त्यजति। निरुद्यमी भवति (पतिः) स्वामी (ब्रह्मा) चतुर्वेदवेत्ता (एव) निश्चयेन (विद्वान्) (एष्यः) अन्वेषणीयः (यः) (क्रव्यादम्) मांसभक्षकं दोषम् (निरादधत्) दधातेर्लेट्। निस्सारयेत् ॥

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    विषय

    मांसभोजन से रोग व मृत्यु

    पदार्थ

    १. (ब्रह्म विद्वान् एव) = चतुर्वेदवेत्ता ज्ञानी पुरुष ही (एष्यः) = ढूँढना चाहिए (यः) = जोकि उचित ज्ञान देकर (क्रव्यादम्) = इस मांसभक्षक अग्नि को (निरादधत्) = हमारे घरों से दूर ही स्थापित करे। यह ज्ञानी पुरुष मनुष्यों को समझाए कि इस मांसभोजन के परिणामस्वरूप (गृहा:) = घर (ग्राह्या) = जकड़ लेनेवाले, गठिया आदि रोगों से (संसृज्यन्ते) = संसृष्ट-युक्त हो जाते हैं। मांसभोजन इसलिए हेय है (यत्) = चूँकि (स्त्रियाः पतिः मियते) = स्त्री का पति असमय में ही काल के वश में हो जाता है।

    भावार्थ

    ज्ञानीपुरुष गृहस्थों को उपदेश दे कि मांसभोजन से गठिया आदि रोगों की उत्पत्ति हा जाता हआर मनुष्य को असमय म हा मृत्युहा जाता है, अत: यह त्याग्य ।

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    भाषार्थ

    (यत्) जब (स्त्रियाः) स्त्री का (पतिः म्रियते) पति मर जाता है तब (गृहाः) गृहवासी (ग्राह्या संसृज्यन्ते) पीड़ा से सम्बद्ध हो जाते हैं। अतः (विद्वान् ब्रह्मैव) चारों वेदों का विद्वान् ही (एष्यः) ढूंढना चाहिये (यः) जोकि (क्रव्यादम्) मांसभक्षक अग्नि को (निरादधत्) निकाल दे।

    टिप्पणी

    [ब्रह्मा= चारों वेदों का ज्ञाता, या ब्रह्मवेदज्ञ, अथर्ववेदज्ञ। क्रव्यादम् = अभिप्राय है यक्ष्मरोग। यक्ष्मरोग के रहते क्रव्याद् की भी सत्ता बनी रहेगी। यक्ष्मरोग के अभाव में क्रव्याद् का भी अभाव स्वतः सिद्ध है]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यत्) जब (स्त्रियाः) स्त्री का (पति) पति, गृहपति (म्रियते) मर जाय तब (गृहाः) घर के जन स्त्री आदि (ग्राह्या) जकड़ने वाले संक्रामक मोहमय रोग, पीड़ा या ममता से (संसृज्यन्ते) युक्त हो जाते हैं। इसलिये (ब्रह्मा एव) ऐसा ब्राह्मण (विद्वान्) ज्ञानी (एष्यः) आवश्यक है (यः) जो (क्रव्यादम्) उस शोकमय शवाग्नि को (निर् आदधत्) पृथक् आधान करने में समर्थ हो। वह गार्हपत्य से पृथक् क्रव्याद् अग्नि को आाधान करे, अर्थात् गृहस्थ अग्नि से जिस प्रकार ‘क्रव्यात्’ को अलग करके दूर छोड़ आया जाता है उसी प्रकार माया में जकड़े मृत शरीर को भी सब से पृथक् करके ज्ञानपूर्वक यथाविधि चिता में जला देवे और सबको उससे नाता तोड़ कर पुनः पूर्ववत् निःशोक होकर रहने का उपदेश करे। नहीं तो ममता-वश उठे संकल्पों से स्त्रियों के मष्तिष्क पर भयंकर रोग बाधाएं और पागलपन आदि विकार उत्पन्न होते हैं जिन्हें चुडैल आदि कहा जाता है। वह वस्तुतः मानस विकारमात्र हैं। वह पति आदि के मरने पर प्रायः (गृहाः) स्त्रियों को ही अधिक होता है।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘यत्स्त्रियां त्रियते’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    The homes and all the inmates are seized with sorrow when the husband of a woman dies. At that time a learned scholar of the Veda should be sought and found who may dispel the ravages of sorrow and despair caused by Kravyadagi.

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    Translation

    The houses are united with seizure when a woman's husband dies; a knowing priest is to be sought, who shall remove the flesh-eating one.

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    Translation

    When a women's husband dies, the homes are engrossed in pains and troubles. At this time the experienced physician who is able to drive away the Kravyad fire (disease) becalled.

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    Translation

    When the husband of a woman loses spirits and becomes devoid of effort, the inmates of the house are plunged in distress. A learned Vedic scholar must be sought for to drive away the vice of meat-eating.

    Footnote

    An educated woman should not marry a man who is lacking in enterprise and has no guts. She should marry a learned person who can drive away all vices from the family,

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३९−(ग्राह्या) अ० २।९।१। ग्रह आदाने−इञ्। ग्राहकेण बन्धनेन शृङ्खलादिना (गृहाः) गेहानि (संसृज्यन्ते) संयुज्यन्ते (स्त्रियाः) गृहपत्न्याः (यत्) यदा (म्रियते) प्राणांस्त्यजति। निरुद्यमी भवति (पतिः) स्वामी (ब्रह्मा) चतुर्वेदवेत्ता (एव) निश्चयेन (विद्वान्) (एष्यः) अन्वेषणीयः (यः) (क्रव्यादम्) मांसभक्षकं दोषम् (निरादधत्) दधातेर्लेट्। निस्सारयेत् ॥

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