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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 29
    ऋषिः - भृगुः देवता - मृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    45

    उ॑दी॒चीनैः॑ प॒थिभि॑र्वायु॒मद्भि॑रति॒क्राम॒न्तोऽव॑रा॒न्परे॑भिः। त्रिः स॒प्त कृत्व॒ ऋष॑यः॒ परे॑ता मृ॒त्युं प्रत्यौ॑हन्पद॒योप॑नेन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒दी॒चीनै॑: । प॒थिऽभि॑: । वा॒यु॒मत्ऽभि॑: । अ॒ति॒ऽक्राम॑न्त: । अव॑रान् । परे॑भि: । त्रि: । स॒प्त । कृत्व॑: । ऋष॑य: । परा॑ऽइता । मृ॒त्युम् । प्रति॑ । औ॒ह॒न् । प॒द॒ऽयोप॑नेन ॥२.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदीचीनैः पथिभिर्वायुमद्भिरतिक्रामन्तोऽवरान्परेभिः। त्रिः सप्त कृत्व ऋषयः परेता मृत्युं प्रत्यौहन्पदयोपनेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उदीचीनै: । पथिऽभि: । वायुमत्ऽभि: । अतिऽक्रामन्त: । अवरान् । परेभि: । त्रि: । सप्त । कृत्व: । ऋषय: । पराऽइता । मृत्युम् । प्रति । औहन् । पदऽयोपनेन ॥२.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 29
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (उदीचीनैः) ऊँचे चलते हुए, (वायुमद्भिः) शुद्ध वायुवाले, (परेभिः) उत्तम (पथिभिः) मार्गों से (अवरान्) निकृष्ट [मार्गों] को (अतिक्रामन्तः) लाँघते हुए, (परेताः) पराक्रम पाये हुए (ऋषयः) ऋषियों ने (त्रिः) तीन बार [मनसा वाचा कर्मणा] (सप्त कृत्वः) सात बार [दो कान, दो नथने, दो आँख और एक मुख द्वारा] (मृत्युम्) मृत्यु को (पदयोपनेन) पद [चाल] रोक देने से (प्रति औहन्) उलटा मारा है ॥२९॥

    भावार्थ

    जैसे ऋषियों ने निकृष्ट कर्म छोड़ कर ब्रह्मचर्य आदि इन्द्रियदमन से सत्यसंकल्पी, सत्यवादी और सत्यकर्मी होकर मृत्यु को वश में किया है, वैसा ही सब मनुष्य करें ॥२९॥

    टिप्पणी

    २९−(उदीचीनैः) विभाषाञ्चेरदिक् स्त्रियाम्। पा० ५।४।८। उदञ्च−ख प्रत्ययः स्वार्थे। उच्चैर्गच्छद्भिः। (पथिभिः) मार्गैः (वायुमद्भिः) शुद्धवायुयुक्तैः (अतिक्रामन्तः) उल्लङ्घयन्तः (अवरान्) निकृष्टान् मार्गान् (परेभिः) उत्कृष्टैः (त्रिः) त्रिवारम्। मनसा वाचा कर्मणा (सप्त कृत्वः) सप्तवारम्। अ० ४।११।९। कर्णनासिकाचक्षुर्द्वयमुखद्वारा (ऋषयः) धर्मदर्शकाः (परेताः) पराक्रमं गताः प्राप्ताः (मृत्युम्) (प्रति) प्रातिकूल्येन (औहन्) उहिर् वधे−लुङ्। हतवन्तः (पदयोपनेन) मार्गनिरोधेन ॥

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    विषय

    वायुमद्धिः उदीचीनैः

    पदार्थ

    १. (उदीचीन:) = उत्कर्ष की ओर ले-जानेवाले [उद् अञ्च], (वायुमद्धिः) = प्राणसाधना से युक्त, जिनमें प्राणायाम आदि का अभ्यास किया जाता है, हम उन (परेभिः पथिभिः) = उत्कृष्ट मागों से (अवरान) = निम्न भोगमागों-राजस्व तामस मार्गों को (अतिक्रामन्त:) = लाँधकर आगे बढ़ते हुए हों। प्रागसाधना के द्वारा हम तमोगुण व रजोगुण से ऊपर उठकर स्वस्थ बने। २. इसप्रकार (ऋषय:) = वासनाओं का संहार करनेवाले [ऋष् to kill] (त्रिः सप्तकृत्वः) = तीन बार 'मन, वाणी व कर्म' के दृष्टिकोण से तथा सात बार 'दो कानों, दो नासिका छिद्रों, दो आँखों व मुख' के दृष्टिकोण से (परेता:) = [पर। इताः] उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त हुए । 'मन, वाणी व कर्म' के दृष्टिकोण से तथा कान आदि सातों होताओं के दृष्टिकोण से पवित्र बनें। इन्होंने पदोपनेन मृत्यु प्रत्यौहन्-मृत्यु के चरणों को विमोहन [to destroy, obliterate, blot out] द्वारा-रोगों के कारणों को दूर करने के द्वारा मृत्यु को अपने से परे विनष्ट किया [उहिर वधे]।

    भावार्थ

    हम प्राणसाधना करते हुए उत्कृष्ट मार्ग पर चलें। मन, वाणी व कर्म के दृष्टिकोण से तथा सातों 'कर्णी, नासिके, चक्षुषी, मुखम्' के दृष्टिकोण से पवित्र बनते हुए उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त हों। मृत्यु के कारणों को दूर करते हुए दीर्घजीवी बनें।

     

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    भाषार्थ

    (उदीचीनैः) ऊपर को चढ़ते हुए (वायुमद्भिः) वायु सम्बन्धी (परेभिः) परले या श्रेष्ठ (पथिभिः) मार्गों द्वारा, (अवरान्) नीचे के या अश्रेष्ठ मार्गों का (अतिक्रामन्तः) अतिक्रमण करते हुए (ऋषयः) ऋषि लोग, (त्रिः सप्त कृत्वः) तीन वार सात और २१ बार [प्राणायामों द्वारा] (परेताः) परले यो श्रेष्ठ स्थान पर पहुंचे हैं। उन्होंने (पदयोपनेन) मृत्यु के पैरों को व्यामोहित कर के (मृत्युम) मृत्यु को (प्रत्यौहन्) दूर कर दिया।

    टिप्पणी

    [प्रत्यौहन्=प्रति + वह्। प्रतिवाहनम् =Leading back (आप्टे), वापिस करना, प्रतिकूल दिशा की ओर करना। मन्त्र में मृत्यु पर विजय पा कर मोक्षधाम को जाने तथा प्रकरणानुसार अकाल मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का भी वर्णन है। त्रिः सप्त कृत्वः = कईयों को २१ वार तपश्चर्या द्वारा– यह अर्थ अभिमत है। परन्तु २१ तपश्चर्याएं कौन सी है इस पर उन्होंने प्रकाश नहीं डाला। प्रकरणानुसार ३×७ प्राणायाम प्रतीत होते हैं, जिन्हें कि प्रतिदिन करना होता है। इस अर्थ की पुष्टि में "आसीनाः" पद अर्थात् आसन लगा कर,–यह भाव विशेष महत्त्व का है, देखो मन्त्र (३०)। "प्रच्छदनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य (योग १।३४); की व्याख्या में योगी स्वामी ओमानन्द जी तीर्थ "पातञ्जल योग प्रदीप" में लिखते हैं कि 'आरम्भ में इस प्राणायाम को इक्कीस बार अथवा यथा सामर्थ्य करना चाहिये। शनैः-शनैः अभ्यास बढ़ावे। इस लेख से “त्रिः सप्त कृत्वः" का अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है। अकालमृत्यु पर विजय पाने के पक्ष में "परेभिः पथिभिः" का अर्थ है श्रेष्ठ योगमार्ग तथा त्याग भावना से जीवनयात्रा का मार्ग, और "अवरान्” का अर्थ है अश्रेष्ठ सांसारिक मार्ग तथा भोग-प्रधान जीवन यात्रा का मार्ग। उदीचीनैः वायुमद्भिः पथिभिः = "किसी सुखासन से बैठ कर ...... कोष्ठ स्थित वायु को नाभि से उठा कर दोनों नासिका पुटों द्वारा वमन की भान्ति एक दम बाहर फेंक देना चाहिये" ("पातञ्जल योगप्रदीप", योग १।३४)। इस प्रकार नाभि से उठी वायु, जिस मार्ग से नासिका पुटों तक पहुंचती है, अर्थात् नीचे से ऊपर की ओर जाती है, उसे "उदीचीनैः वायुमद्भिः पथिभिः" द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। अतिक्रामन्तः अवरान् परेभिः = प्राणायाम करते समय, नाभि से अर्थात् नीचे से (अवरान्); वायु को ऊपर की ओर (परेभि) ले जाते हुए, अवरमार्गों का परमार्गों की दृष्टि से अतिक्रमण करना होता है।]

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (ऋषयः) तत्वदर्शी, मन्त्रद्रष्टा ऋषि लोग (उदीचीनः) ऊर्ध्व, परब्रह्म तक जाने वाले (वायुमद्भिः) ऊपर के वायु के बने अन्तरिक्ष मार्गों के समान वायु से बने प्राणमय (परेभिः) परम, उत्कृष्ट प्रति दूर पद तक पहुंचने वाले (पथिभिः) मार्गों, साधनों से (अवरान्) नीचे के तुच्छ जीवन मार्गों को, जीवन के कष्ठों को (अतिक्रामन्तः) पार करते हुए (परेताः) परम पद तक पहुंचे हुए (पदयोपनेन) पदों या देहों के योपन अर्थात् विलोपन द्वारा या मृत्यु के आने के कारणों को दूर करके (मृत्युम्) मृत्यु को (त्रिः सप्तकृत्वः) २१ वार (प्रति-औहन्) पराजित करते हैं।

    टिप्पणी

    ‘आत्मावै पदम्’। कौ० २३। ६॥ पद्यते अनेनेति पदम् निमित्तम्। इसी मन्त्र के आधार पर गृह्यसूत्रोक्त मृत्यु के ‘पदलोपन’ की विधि रची गई है। ‘नलैर्वेतसशाखया वा पदानि लोपयन्ते’। मानव गृ० सू० २। १३॥ ‘अपक्रामन्तो दुरिताम् परेहि’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    By the best and highest vibrant ways of yoga practice, having rejected the lower ways of living, thinking and doing, the Rshis of high order conquer the pain of death by thrice seven ways of piety and noble actions at every step of life.

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    Translation

    By upward roads, full of wind, by distant ones, stepping over those that are lower, thrice seven times did the departed seers bear back death with the track-obstructor.

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    Translation

    The Rishis (Seer and Saints) through the excellent upward ways and methods of exhaling and inhaling breath and raising this exercise or practice upto twenty one times, crossing beyond the lower, reaching higher states overcome death putting obstacles in its way.

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    Translation

    Highly advanced sages, through the exercises of breath-control, full of far-reaching consequences, leading to the Almighty God, overpowering the sufferings of life, have conquered death, by keeping its causes away, through righteous thought, word and deed, and correct use of the seven organs.

    Footnote

    Seven organs: Two eyes, two ears, two nostrils and mouth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २९−(उदीचीनैः) विभाषाञ्चेरदिक् स्त्रियाम्। पा० ५।४।८। उदञ्च−ख प्रत्ययः स्वार्थे। उच्चैर्गच्छद्भिः। (पथिभिः) मार्गैः (वायुमद्भिः) शुद्धवायुयुक्तैः (अतिक्रामन्तः) उल्लङ्घयन्तः (अवरान्) निकृष्टान् मार्गान् (परेभिः) उत्कृष्टैः (त्रिः) त्रिवारम्। मनसा वाचा कर्मणा (सप्त कृत्वः) सप्तवारम्। अ० ४।११।९। कर्णनासिकाचक्षुर्द्वयमुखद्वारा (ऋषयः) धर्मदर्शकाः (परेताः) पराक्रमं गताः प्राप्ताः (मृत्युम्) (प्रति) प्रातिकूल्येन (औहन्) उहिर् वधे−लुङ्। हतवन्तः (पदयोपनेन) मार्गनिरोधेन ॥

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