अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
ऋषिः - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
52
यत्त्वा॑ क्रु॒द्धाः प्र॑च॒क्रुर्म॒न्युना॒ पुरु॑षे मृ॒ते। सु॒कल्प॑मग्ने॒ तत्त्वया॒ पुन॒स्त्वोद्दी॑पयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । त्वा॒ । क्रु॒ध्दा: । प्र॒ऽच॒क्रु: । म॒न्युना॑ । पुरु॑षे । मृ॒ते । सु॒ऽकल्प॑म् । अ॒ग्ने॒ । तत् । त्वया॑ । पुन॑: । त्वा॒ । उत् । दी॒प॒या॒म॒सि॒ ॥२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्त्वा क्रुद्धाः प्रचक्रुर्मन्युना पुरुषे मृते। सुकल्पमग्ने तत्त्वया पुनस्त्वोद्दीपयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । त्वा । क्रुध्दा: । प्रऽचक्रु: । मन्युना । पुरुषे । मृते । सुऽकल्पम् । अग्ने । तत् । त्वया । पुन: । त्वा । उत् । दीपयामसि ॥२.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे अपराधी !] (यत्) यदि (त्वा) तुझ को (क्रुद्धाः) क्रोधित पुरुषों ने (पुरुषे मृते) पुरुष के मरने पर (मन्युना) कोप से (प्रचक्रुः) निकाल दिया था। (अग्ने) हे अग्नि ! [समान सन्तापकारी पुरुष] (तत्) वह (त्वया) तेरे साथ (सुकल्पम्) सुन्दर विचारयुक्त विधान है, (पुनः) फिर (त्वा) तुझ को [सुकर्म के लिये] (उत् दीपयामसि) हम उत्तेजित करते हैं ॥५॥
भावार्थ
राजपुरुषों को उचित है कि यदि अपराधी पुरुष दण्ड भोगने से सुधरे तो उस से अनुकूल व्यवहार करके सुकर्म के लिये उसका उत्साह बढ़ावें ॥५॥
टिप्पणी
५−(यत्) यदि (त्वा) अपराधिनम् (क्रुद्धाः) कुपिताः (प्रचक्रुः) बहिष्कृतवन्तः (मन्युना) कोपेन (पुरुषे) (मृते) मरणं गते (सुकल्पम्) सुसंकल्पं विधानम् (अग्ने) हे अग्निवत्सन्तापक (तत्) कर्म (त्वया) अपराधिना सह (पुनः) पश्चात् (त्वा) (उद्दीपयामसि) उत्तेजयामः सुकर्मणे ॥
विषय
दण्ड का उद्देश्य 'सुधार'
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = क्रव्यात अग्ने-प्रजापीड़क पुरुष! (पुरुषे मृते) = तेरे द्वारा किसी पुरुष के मत होने पर (मन्युना) = शोक से-दु:ख से [मन्युझेको नु शुक् स्त्रियाम्] (क्रुद्धा:) = क्रुद्ध हुए-हुए व्यक्ति (त्वा प्रचक्रुः) = [प्रकृ Assault, outrage. insult] तुझपर आक्रमण करते हैं या तुझे अपमानित करते हैं, (त्वया तत् सुकल्पम्) = तेरे साथ वह उत्तम ही विधान है [कल्प-A sacred precept, rule]| २. वस्तुत: उचित दण्ड के द्वारा हम (पुन:) = फिर से (त्वा उद्वीपयामसि) = [Illuminate] तुझे प्रबुद्ध करते हैं। यह दण्ड तेरी प्रसुप्त मानव चेतना को जगानेवाला बनता है और तू फिर से क्रव्यात्पन को छोड़कर मानव बनता है-अब तू औरों को पीड़ित न करने का निश्चय करता है।
भावार्थ
जब एक क्रव्यात् [प्रजापीड़क] किसी पुरुष की हत्या का कारण बनता है तब मृत पुरुष के बन्धु व मित्र क्रुद्ध होकर उसपर आक्रमण करते हैं। यह क्रव्यात् के प्रति व्यवहार ठीक ही है। इसका मुख्य उद्देश्य क्रव्यात् की प्रसुप्त चेतना को जागरित करके उसे फिर से मानव बनाना ही होता है।
भाषार्थ
(पुरुषे मृते) पुरुष के मर जाने पर (मन्युना) रोष के कारण (क्रुद्धाः) कुपित होकर [हे अग्नि !] (यत् त्वा) जो तुझे (प्रचक्रुः) प्रकृतिरूप कर देते हैं, समाप्त कर देते हैं, (अग्ने) हे अग्नि ! (तत्) वह (त्वया) तुझ द्वारा (सुकल्पम्) उत्तम प्रकार से सामर्थ्यवान् कर दिया जाता है, अतः (पुनः) फिर (त्वा) तुझे (उद् दीपयामसि) हम उद्दीप्त करते हैं। (देखो मन्त्र ६)।
टिप्पणी
[गार्हपत्याग्नि या आहवनीयाग्नि के सम्बन्ध में वर्णन हुआ है। गार्हपत्याग्नि गृहपति की रक्षा के लिये आहित की जाती है, ताकि उस द्वारा धार्मिक कृत्य किये जा कर गृहवासियों की रक्षा हो सके। परन्तु इन कर्मों भी यदि गृहवासी की मृत्यु हो जाती है तो अश्रद्धालु गृहवासी क्रुद्ध होकर के करते हुए अग्नि को यदि प्रकृतिस्थ कर दें, समाप्त कर दें, तो इस सम्बन्ध में कहा है कि अग्नि तो स्वास्थ्य सम्पादन करने में सामर्थ्यवान् हैं ही, अतः गृहवासी उसे पुनः उद्दीपित करते हैं। प्रचक्रुः= प्र + कृ + लिट्। प्रकृतिस्थ करना। यथा "मरणं प्रकृतिः शरीरिणां विकृतिर्जीवितमुच्यते बुधैः ।” (रघुवंश, ८।८७)।
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(पुरुषे मृते) मनुष्य के मर जाने पर हे क्रव्यात् अग्ने, मांसाहारी, हिंसक जीव (यत्) यदि (क्रुद्धाः) क्रोध में आये पुरुषों ने (मन्युना) क्रोध से (त्वा प्रचक्रुः) तुझे बहुत बनाया है, तुझे मारा है (तत्) तो भी हे (अग्ने) अग्नि के समान सन्तापकारी जन ! (त्वया) तुझे (तत्) वह (सुकल्पम्) सुख से सहना चाहिये। हम तो (त्वा) तुझे (पुनः) फिर भी (उत्-दीपयामसि) उत्तेजित करते हैं, और भी दण्ड देते हैं। जब पुरुष मर जाता है उस समय जिस प्रकार शवाग्नि को लोग प्रचण्डता से जलाते हैं उसी प्रकार पुनः उस हिंसाकारी पुरुष को खूब उद्विग्न करना चाहिये।
टिप्पणी
(प्र०) ‘यत् त्वा कृत्वा’ (द्वि०) ‘पुरुषे मिते’ (तृ०) ‘अग्ने च त्वया’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
If on the patient’s death, people stricken with rage and sorrow put out the fire, that absence ought to be corrected and fire restored in the home. Therefore we light the fire again in the home.
Translation
If angry men put thee forth, with fury, a man having died, that O Agni, is easy to be arranged by thee; we make thee flame up again.
Translation
When a man is dead the persons enraged with angers through this anger leave this fire away from use in removing diseases, but this deed of using fire to cure diseases is set right and again kindle this to use properly.
Translation
O culprit, if angered persons full of righteous indignation, on the murder of a man, give thee condign punishment, thou shouldst tolerate it. We encourage thee again for noble conduct!
Footnote
If a culprit reforms himself by undergoing the punishment administered, he should be given every facility by the state officials to behave better and resort to noble conduct.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(यत्) यदि (त्वा) अपराधिनम् (क्रुद्धाः) कुपिताः (प्रचक्रुः) बहिष्कृतवन्तः (मन्युना) कोपेन (पुरुषे) (मृते) मरणं गते (सुकल्पम्) सुसंकल्पं विधानम् (अग्ने) हे अग्निवत्सन्तापक (तत्) कर्म (त्वया) अपराधिना सह (पुनः) पश्चात् (त्वा) (उद्दीपयामसि) उत्तेजयामः सुकर्मणे ॥
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