अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 21
ऋषिः - भृगुः
देवता - मृत्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
55
परं॑ मृत्यो॒ अनु॒ परे॑हि॒ पन्थां॒ यस्त॑ ए॒ष इत॑रो देव॒याना॑त्। चक्षु॑ष्मते शृण्व॒ते ते॑ ब्रवीमी॒हेमे वी॒रा ब॒हवो॑ भवन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठपर॑म् । मृ॒त्यो॒ इति॑ । अनु॑ । परा॑ । इ॒हि॒ । पन्था॑म् । य: । ते॒ । ए॒ष: । इत॑र: । दे॒व॒ऽयाना॑त् । चक्षु॑ष्मते । शृ॒ण्व॒ते । ते॒ । ब्र॒वी॒मि॒ । इ॒ह । इ॒मे । वी॒रा: । ब॒हव॑: । भ॒व॒न्तु॒ ॥२.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
परं मृत्यो अनु परेहि पन्थां यस्त एष इतरो देवयानात्। चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमीहेमे वीरा बहवो भवन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठपरम् । मृत्यो इति । अनु । परा । इहि । पन्थाम् । य: । ते । एष: । इतर: । देवऽयानात् । चक्षुष्मते । शृण्वते । ते । ब्रवीमि । इह । इमे । वीरा: । बहव: । भवन्तु ॥२.२१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(मृत्यो) हे मृत्यु ! [मृत्युरूप दुर्बलेन्द्रिय पुरुष] (यः) जो (ते) तेरा (एषः) यह (देवयानात्) विद्वानों के मार्ग से (इतरः) भिन्न [बुरा मार्ग है, उस बुरे मार्ग से] (परम्) उत्तम (पन्थाम् अनु) मार्ग पर (परा इहि) पराक्रम से चल। (चक्षुष्मते) उत्तम नेत्रवाले (शृण्वते) सुनते हुए (ते) तेरे लिये (ब्रवीमि) मैं उपदेश करता हूँ, (इह) यहाँ (इमे) यह सब (वीराः) वीर लोग (बहवः) बहुत से (भवन्तु) होवें ॥२१॥
भावार्थ
जो दुर्बलेन्द्रिय आत्मघाती कुमार्गी पुरुष हैं, वे आँखों और कानों को खोलकर उपदेश सुनें और दुराचारों को छोड़ कर विद्वानों के समान वीरों की संख्या बढ़ावें ॥२१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१८।१। तथा यजु० ३५।७ ॥
टिप्पणी
२१−(परम्) उत्तमम् (मृत्यो) हे मृत्युरूप दुर्बलेन्द्रिय पुरुष (अनु) अनुसृत्य (परा) पराक्रमेण (इहि) गच्छ (पन्थाम्) मार्गम् (यः) (ते) तव (एषः) (इतरः) भिन्नः। कुमार्गः (देवयानात्) विदुषां मार्गात् (चक्षुष्मते) प्रशस्तनेत्रयुक्ताय (शृण्वते) श्रवणं कुर्वते (ते) तुभ्यम् (ब्रवीमि) उपदिशामि (इह) संसारे (इमे) वीराः (बहवः) बहुसंख्याकाः (भवन्तु) ॥
विषय
मृत्यु का मार्ग [ देवयान से दूर]
पदार्थ
१. (शुद्ध) = पवित्र बनकर हम मृत्यु से कह सकते हैं कि (मृत्यो) = हे मृत्युदेवते! तू (परं पन्थाम्) = सुदूर मार्ग को (अनु) = लक्ष्य करके (परेहि) = हमसे दूर चली जा। उस मार्ग पर जा (यः) = जो (एष:) = यह (ते) = तेरा है। (देवयानात् इतर:) = जो मार्ग देवयान से भिन्न है। देवों का मार्ग देने का है, 'देवो दानात् । असुरों का मार्ग खाने का है 'स्वेष्वास्येषु जलतश्चेरु:'। २. हे मृत्यो! (चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि) = देखती व सुनती तेरे लिए मैं यह कहता हूँ कि इह-यहाँ हमारे घर में इमे (वीरा:) = ये वीर सन्तान (बहवः भवन्तु) = [बृहते, बृहि वृद्धौ] वृद्धिशील हों। शरीर, मन व बुद्धि के दृष्टिकोण से ये उन्नति करनेवाले हों।
भावार्थ
हम देवयान मार्ग से गति करते हुए मृत्यु से बचे रहें-हमारे सन्तान भी 'शरीर, मन व बुद्धि' के दृष्टिकोण से वृद्धि प्राप्त करें।
भाषार्थ
(मृत्यो) हे मृत्यु ! (अनु) निरन्तर (परम् पन्थाम्) दूर के मार्ग पर (परेहि) तू परे चली जा, (यः ते एषः) जो यह तेरा मार्ग (देवयानात् इतरः) देवों के मार्ग से भिन्न है। मानो (ते चक्षुष्मते शृण्वते) तुझ देखते हुए तथा सुनते हुए के प्रति (ब्रवीमि) मैं कहता हूं। (इह) इस देवों के मार्ग में (इमे) ये (वीराः) धर्मवीर तथा शूरवीर (बहवः) बहुत से (भवन्तु) हों।
टिप्पणी
[जीवन के दो मार्ग हैं-पितृयाण तथा देवयान। देवयान सत्यमय है और पितृयाण सन्तानधर्मियों का। पितृयाण में मृत्यु का राज्य होता है, व्यक्ति मृत्यु और पुनर्जन्म की शृङ्खला में बन्धे रहते हैं, और देवयानी मोक्ष प्राप्त कर मृत्यु की मार से बच जाते हैं। "सत्यं वै देवाः, अनृतं मनुष्याः"]।
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (मृत्यो) मृत्यो ! (देवयानात्) देवयान अर्थात् मुमुक्षुओं के ब्रह्मज्ञानमार्ग से (इतरः) अतिरिक्त (यः ते) जो तेरा (एषः) जो यह ‘पितृयाण’ का मार्ग है उस (परं पन्थां) दूसरे मार्ग को (अनु परा इहि) दूर से ही चला जा। (चक्षुष्मते) आंख वाले और (शृण्वते ते) सुनने हारे तुझे (ब्रवीमि) कहता हूं कि (इमे) ये सब (वीराः) वीर्यवान्, सामर्थ्यवान्, बलवान् पुरुष (बहवः भवन्तु) बहुत से होजांय। अध्यात्म साधना से जाने वाले वीर्यवान्, सामर्थ्यवान्, दीर्घायु होवें, मृत्यु उनको न सतावे।
टिप्पणी
ऋग्वेदे संकुसुको यामायन ऋषिः। मृत्युर्देवता। (द्वि०) ‘यस्ते स्वः इतरो’ (च०) ‘मा नः प्रजा रीरिषो मोत वीरान्’ इति ऋ०। अत्रैव। (द्वि०) ‘यस्ते अन्य’ इति यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
O Death, go far away at the farthest, by the path that is other than this path of divinity, I say to you who have eyes to see and ears to hear. Let there be a plenty of the brave here free from danger and death.
Subject
Mrtyuh
Translation
Go away, O death, along a distant road which is thine here, other than that the gods go upon; I speak to thee having sight, hearing; let these many heroes be here.
Translation
Let the death carry out its plan by the second path of it which is different one from the path of Devayana (the path by which travel the enlightened persons), I, the enlightened one tell it that like a man possessing eyes and ears let it go away and may there be large number of heroes around me.
Translation
Go onward, O Death, pursue thy special pathway apart from that which the emancipated souls are wont to tread. To thee I say who hast eyes and hearest: great grow the number of these stalwart persons around us!
Footnote
spiritually-minded strong persons lead a long life. See Rig, 10-18-1; Yajur, 35-7.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२१−(परम्) उत्तमम् (मृत्यो) हे मृत्युरूप दुर्बलेन्द्रिय पुरुष (अनु) अनुसृत्य (परा) पराक्रमेण (इहि) गच्छ (पन्थाम्) मार्गम् (यः) (ते) तव (एषः) (इतरः) भिन्नः। कुमार्गः (देवयानात्) विदुषां मार्गात् (चक्षुष्मते) प्रशस्तनेत्रयुक्ताय (शृण्वते) श्रवणं कुर्वते (ते) तुभ्यम् (ब्रवीमि) उपदिशामि (इह) संसारे (इमे) वीराः (बहवः) बहुसंख्याकाः (भवन्तु) ॥
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