अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 54
ऋषिः - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
39
इ॒षीकां॒ जर॑तीमि॒ष्ट्वा ति॒ल्पिञ्जं॒ दण्ड॑नं न॒डम्। तमिन्द्र॑ इ॒ध्मं कृ॒त्वा य॒मस्या॒ग्निं नि॒राद॑धौ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒षीका॑म् । जर॑तीम् । इ॒ष्ट्वा । ति॒ल्पिञ्ज॑म् । दण्ड॑नम् । न॒डम् । तम् । इन्द्र॑: । इ॒ध्मम् । कृ॒त्वा । य॒मस्य॑ । अ॒ग्निम् । नि॒:ऽआद॑धौ ॥२.५४॥
स्वर रहित मन्त्र
इषीकां जरतीमिष्ट्वा तिल्पिञ्जं दण्डनं नडम्। तमिन्द्र इध्मं कृत्वा यमस्याग्निं निरादधौ ॥
स्वर रहित पद पाठइषीकाम् । जरतीम् । इष्ट्वा । तिल्पिञ्जम् । दण्डनम् । नडम् । तम् । इन्द्र: । इध्मम् । कृत्वा । यमस्य । अग्निम् । नि:ऽआदधौ ॥२.५४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] ने (जरतीम्) स्तुतियोग्य (इषीकाम्) प्राप्तियोग्य [वेदवाणी] (इष्ट्वा) देकर और (तिल्पिञ्जम्) गति अर्थात् प्रयत्न के निवासवाले (दण्डनम्) दण्डव्यवहार और (नडम्) प्रबन्धव्यवहार को (इध्मम्) प्रकाशमान (कृत्वा) करके (यमस्य) न्यायाधीश के (तम्) उस (अग्निम्) प्रताप को (निरादधौ) निश्चय करके ठहराया है ॥५४॥
भावार्थ
परमात्मा ने वेद द्वारा समस्त विद्याओं और नियमों का प्रकाश करके बताया है कि जो न्यायी मनुष्य ईश्वरनियम पर चलते हैं, वे जगत् में प्रतापी होते हैं ॥५४॥
टिप्पणी
५४−(इषीकाम्) ईष गतौ हिंसने च−ईकन्, टाप्। प्राप्तव्यां−वेदवाणीम् (जरतीम्) जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः−निरु० १०।८। जीवतेरतृन्। पा० ३।२।१०४। जॄ स्तुतौ−अतृन्=अत्, ङीप्। स्तुत्याम् (इष्ट्वा) यज्ञे दाने। दत्त्वा (तिल्पिञ्जम्) तिल गतौ स्निग्धीभावे च−क्विप्+पिजि हिंसाबलादाननिकेतनेषु−अच्। मतेः प्रयत्नस्य निवासम् (दण्डनम्) दण्डपातव्यवहारम् (नडम्) नल बन्धे−अच्, लस्य डः। प्रबन्धम् (तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (इध्मम्) प्रकाशमानम् (कृत्वा) (यमस्य) न्यायाधीशस्य (अग्निम्) प्रतापम् (निरादधौ) निश्चयेन सम्यक् स्थापितवान् ॥
विषय
'तिल्पिञ्जं-दण्डनम् नडम्
पदार्थ
१. (जरतीम्) = [जरिता गरिता स्तोता] उस प्रभु का स्तवन करती हुई [सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति, ऋचो अक्षरे परमे व्योमन] (इषीकाम्) = [to urge, impel] कर्तव्य-कर्मों की प्रेरणा देती हुई वेदवाणी को (इष्ट्वा) = अपने साथ संगत करके [यज् संगतिकरणे], तथा (तिल्पिजम्) = [तिल् स्निग्धीभावे, पिजि निकेतने] स्नेह के निकेतन-प्रेमपुञ्ज-प्राणिमात्र के प्रति दयाल, (दण्डनम्) = मार्गभ्रष्ट होने पर दण्ड देनेवाले-न्यायकारी (नडम्) = [नड् गहने] गहन व अचिन्त्यस्वरूप प्रभु को (इष्ट्वा) = पूजकर 'यज देवपूजायाम्' (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय उपासक (तम्) = उस प्रभु को ही (इध्मं कृत्वा) = दीस बनाकर-प्रभु की उपासना से प्रभु के प्रकाश को देखकर, (यमस्य अग्निं निरादधौ) = यम की अग्नि को अपने से दूर स्थापित करता है, अर्थात् इसे उस नियन्ता प्रभु के दण्ड से दण्डित नहीं होना पड़ता। इसके लिए प्रभु का रूप 'शिव' ही होता है-'रुद्र' रूप नहीं।
भावार्थ
हम वेदवाणी का अध्ययन करें तथा उस 'न्यायकारी, दयालु' प्रभु का स्मरण करें। ऐसा करने पर हमें प्रभु का प्रकाश प्राप्त होगा और हमें मार्गभंश के कारण होनेवाले कष्ट न उठाने पड़ेंगे।
भाषार्थ
(जरतीम्) जीर्ण हुई (इषीकाम्) मूंज की, (तिल्पिञ्जम्) तिलों और तिल की खली की, (दण्डनम्, नडम्) दण्डन और नड की (इष्ट्वा) इष्टि कर के, इन की आहुतियां दे कर, (तम्, इध्मम्, कृत्वा) और इन्हें ही इध्म बना कर (इन्द्रः) इन्द्र ने (यमस्य अग्निम्) मृत्यु की अग्निरूप यक्ष्म को, या शवाग्नि को, (निरादधौ) शरीर से, या घर से, निकाल धरा।
टिप्पणी
[इषीका = Reed, Rush (आप्टे)। इन्द्रः = यक्ष्मरोग से मुक्त हुआ, ऐश्वर्य सम्पन्न जीवात्मा वाला व्यक्ति]।
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(जरतीम्) जीर्ण हुई (इषीकाम्) सींक को (तिल्पिञ्जं) तिल के डंटल को और (दण्डनं) दण्डन = बांस और (नडम्) नड़, नरकुल इनको (इष्ट्वा) यज्ञ अर्थात् इनके समान जीर्ण देह को अग्नि में आहुति करके (इन्द्रः) इन्द, ज्ञानैश्वर्यवान् पुरुष (तम्) उस अपने आत्मा को (इध्मम्) ईंधन बना कर या प्रदीप्त करके (यमस्य) सर्वनियन्ता परमेश्वर के (अग्निम्) ज्ञानमय अग्नि के समान स्वरूप को (निर्-आदधौ) अपने भीतर धारण करे। सींक, तिलपिञ्ज और दण्डन = बांस और नले ये चारों पदार्थ जीर्ण हो जाने पर जला दिये जाते हैं और फिर ऋतु पर नये उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार यह पुरुष भी अपने जीर्ण देह को अग्नि में जला दे और स्वयं ईश्वर के तेजोमय स्वरूप को धारण करे उसका ध्यान चिंतन करे।
टिप्पणी
(तृ०) ‘तानिन्द्रेध्मं’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
Having made withered munja grass and the stock of reed as fuel of fire and having offered white sesamum for oblation, Indra, the physician, dispelled the flesh-eating fire of death from the body and the home.
Translation
Having made offering of withered cane, of tilpinja, of dandana, of reeds; having made fuel of this, Indra removed Yama’s fire.
Translation
Indra, the learned one making old Ishika (a kind of grass called Munja) shoot of sesmum, stalk of reed media and fuel controls the fire of Yama, the cycle of seasons.
Translation
God, bestowing the laudable, attainable Vedic speech, revealing the mode of administration and punishment, entailing speedy action and exertion, has established the majesty of a just ruler.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५४−(इषीकाम्) ईष गतौ हिंसने च−ईकन्, टाप्। प्राप्तव्यां−वेदवाणीम् (जरतीम्) जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः−निरु० १०।८। जीवतेरतृन्। पा० ३।२।१०४। जॄ स्तुतौ−अतृन्=अत्, ङीप्। स्तुत्याम् (इष्ट्वा) यज्ञे दाने। दत्त्वा (तिल्पिञ्जम्) तिल गतौ स्निग्धीभावे च−क्विप्+पिजि हिंसाबलादाननिकेतनेषु−अच्। मतेः प्रयत्नस्य निवासम् (दण्डनम्) दण्डपातव्यवहारम् (नडम्) नल बन्धे−अच्, लस्य डः। प्रबन्धम् (तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (इध्मम्) प्रकाशमानम् (कृत्वा) (यमस्य) न्यायाधीशस्य (अग्निम्) प्रतापम् (निरादधौ) निश्चयेन सम्यक् स्थापितवान् ॥
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