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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
    ऋषिः - भृगुः देवता - मृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    149

    इ॒मं जी॒वेभ्यः॑ परि॒धिं द॑धामि॒ मैषां॒ नु गा॒दप॑रो॒ अर्थ॑मे॒तम्। श॒तं जीव॑न्तः श॒रदः॑ पुरू॒चीस्ति॒रो मृ॒त्युं द॑धतां॒ पर्व॑तेन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । जी॒वेभ्य॑: । प॒रि॒ऽधिम् । द॒धा॒मि॒ । मा । ए॒षा॒म् । नु । गा॒त् । अप॑र: । अर्थ॑म् । ए॒तम् । श॒तम् । जीव॑न्त: । श॒रद॑: । पु॒रू॒ची: । ति॒र: । मृ॒त्युम् । द॒ध॒ता॒म् । पर्व॑तेन ॥२.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं जीवेभ्यः परिधिं दधामि मैषां नु गादपरो अर्थमेतम्। शतं जीवन्तः शरदः पुरूचीस्तिरो मृत्युं दधतां पर्वतेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । जीवेभ्य: । परिऽधिम् । दधामि । मा । एषाम् । नु । गात् । अपर: । अर्थम् । एतम् । शतम् । जीवन्त: । शरद: । पुरूची: । तिर: । मृत्युम् । दधताम् । पर्वतेन ॥२.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 23
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (एषाम्) इन [प्राणियों] के बीच (जीवेभ्यः) जीवते हुए [पुरुषार्थी] लोगों के लिये (इमम्) यह (परिधिम्) मर्यादा (दधामि) मैं [परमेश्वर] ठहराता हूँ, (अपरः) दूसरा [भरा हुआ, दुर्बलेन्द्रिय] (एतम्) इस (अर्थम्) पाने योग्य पदार्थ [सुख] को (नु मा गात्) कभी न पावे। (शतम्) सौ और (पुरूचीः) बहुत सी (शरदः) बरसों तक (जीवन्तः) जीवते हुए लोग (मृत्युम्) मृत्यु [मरण वा दुःख] को (पर्वतेन) [विज्ञान की] पूर्णता से (तिरः दधताम्) तिरोहित करें [ढक देवें] ॥२३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य ब्रह्मचर्य आदि परमेश्वरकृत नियमों पर चलते हैं, वे बहुत काल तक जीकर सुख भोगते हैं और दुर्बलेन्द्रिय लोग नरक में पड़कर शीघ्र मर जाते हैं ॥२३॥ यह मन्त्र ऋषि दयानन्दकृत संस्कारविधि जातकर्मप्रकरण में और कुछ भेद से ऋग्वेद १०।१८।४। और यजुर्वेद ३५।१५। में है ॥

    टिप्पणी

    २३−(इमम्) प्रत्यक्षम् (जीवेभ्यः) प्राणधारकेभ्यः (परिधिम्) मर्यादाम् (एषाम्) जीवानां मध्ये (नु) सद्यः (मा गात्) न प्राप्नुयात् (अपरः) अन्यः। दुर्बलेन्द्रियः (अर्थम्) उषिकुषिगार्तिभ्यस्थन्। उ० २।४। ऋ गतौ−थन्। गन्तव्यम्। प्राप्तव्यं पदार्थसुखम् (एतम्) (शतम्) (जीवन्तः) प्राणान् धारयन्तः (शरदः) संवत्सरान् (पुरूचीः) बहूनि सर्वाण्यञ्चन्तीः (तिरो दधताम्) तिरोहितं कुर्वन्तु (मृत्युम्) (पर्वतेन) भृमृदृशियजिपर्वि०। उ० ३।११०। पर्व पूरणे−अतच्। ज्ञानपूर्त्या। ब्रह्मचर्यादिना ॥

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    विषय

    मर्यादित-पुरुषार्थमय' दीर्घजीवन

    पदार्थ

    १. (जीवेभ्यः) = जीवों के लिए (इमं परिधि दधामि) = इस मर्यादा की स्थापना करता हूँ। जीव प्रत्येक कार्य को मर्यादा में करनेवाले हों। अति को छोड़कर सब कार्यों में मध्यमार्ग का अवलम्बन करें। २. (नु) = निश्चय से (एषाम्) = इनके (एतं अर्थम्) = इस धन को (अपरः मा गात्) = दूसरा प्रास न हो। सब अपने पुरुषार्थ से धर्नाजन करनेवाले हों। दूसरे से धन लेने की कामना ही न करें। अपने पुरुषार्थ से खानेवाले ही 'उत्तम' हैं, पिता से लेकर खानेवाले 'मध्यम', मामा का खानेवाले अधम' व श्वसुर पर आश्रित होनेवाले अधमाधम' हैं। ३. सब जीव (शतं शरदः जीवन्त:) = सौ वर्ष तक जीएँ। जीएँ भी (पुरूची:) = अत्यन्त गतिशील होते हुए। अकर्मण्य होकर खाट पर लेटे-लेटे जीना कोई जीना नहीं है। ४. (पर्वतेन) = [पर्व पूरणे] निरन्तर अपने पूरण के द्वारा-कमियों को दूर करते रहने के द्वारा (मृत्युं तिरः दधताम्) = मृत्यु को अपने से तिरोहित ही रक्खें। प्रतिदिन का यह पूरण मृत्यु को हमारे समीप न आने दे।

    भावार्थ

    [हम मर्यादा में चलें। पुरुषार्थ से धन कमाएँ। सौ वर्ष तक जीएँ और मृत्यु को अपने से दूर ही रक्खें। -सम्पा०]

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    भाषार्थ

    (जीवेभ्यः) जीवित मनुष्यों के लिये (इमं परिधिम्) इस मर्यादा को (दधामि) मैं परमेश्वर स्थापित अर्थात् निश्चित करता हूं, (एषाम्) इन मनुष्यों से (अपरः) कोई (नु) निश्चय से (एतम् अर्थम्) इस अभ्यर्थनीय परिधि अर्थात् मर्यादा का (मा गात्) उल्लंघन न करे। (पुरुचीः) बहुविध कर्मों से व्याप्त (शतं शरदः) सौ वर्षों तक (जीवन्तः) जीवित रहते हुए (मृत्युम्) मृत्यु को (तिरः दधताम्) तिरोहित करो, रोके रखो (पर्वतेन) जैसे कि पर्वत द्वारा पर्वत पारवर्ती शत्रु को रोका जाता है।

    टिप्पणी

    [वेद द्वारा जीवन के लिये जो मर्यादाएं उपदिष्ट हुई हैं, उन में चलते हुए, तथा सत्कर्मो में व्याप्त होते हुए, अकाल मृत्यु पर विजय पानी चाहिये। वेद में ७ मर्यादाओं का कथन हुआ है, "सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुः" (ऋ० १०।५।६)। इस मन्त्र की व्याख्या में निरुक्तकार ने ७ मर्यादाएं निम्नलिखित दर्शाई है। यथा– स्तेयम्, तल्पारोहणम् अर्थात् व्यभिचार, ब्रह्महत्याम, भ्रूणहत्याम् अर्थात् गर्भनाश, सुरापानम् दुष्कृतस्य कर्मणः पुनः पुनः सेवाम्, पात केऽनुतोद्यम्" (६।५।२७) मन्त्र २३ में परिधि शब्द पठित है परन्तु परिधि या मर्यादा - इन दोनों का अभिप्राय एक ही है। मृत्यु सम्बन्धी परिधि के सम्बन्ध में, अथर्व ८।२।९ निम्नलिखित मन्त्र भी है। यथा:- "सर्वो वै तत्र जीवति गौरश्वः पुरुषः पशुः। यत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधिर्जीवनाय कम्", अर्थात् जब जीवन को सुखी बनाने के लिये इस ब्रह्म (वेद) को, अर्थात् समग्र वेद के उपदेश को, परिधि रूप मर्यादा रूप किया जाता है, तब गौ, अश्व, पुरुष तथा अन्य पशु भी अपनी-अपनी पूर्ण आयु तक जीवित रहते हैं, क्योंकि वेदों में प्रत्येक जाति के प्राणियों के सम्बन्ध में दीर्घ जीवन के उपाय दर्शाएं हैं।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    मैं परमात्मा (जीवेभ्यः) जीवन धारण करने वाले प्राणियाँ को (इमम्) यह (परिधि) परकोट के समान जीवन की मर्यादा या रक्षा करता हूं। अर्थात् प्रत्येक जीव के जीवन की विशेष रक्षा के उपाय करता हूं। (एषाम् अपरः) इनमें से कोई भी (एतम् अर्थम्) इस मृत्यु रूप प्रयोजन के लिये इस रक्षाविधि के पार (मा नु गात्) कभी न जाय। प्रत्युत, हे मनुष्यो ! आप लोग (शतं शरदः) सौ वरस और (पुरूचीः) और उससे भी अधिक (जीवन्तः) जीते हुए (पर्वतेन) जिस प्रकार पर्वत या पर्वत के समान ऊंचे परकोट से बाहर के पदार्थ छिप जाते हैं उसी प्रकार मेरी बनाई इस रक्षा के उपाय से (मृत्युम्) मृत्यु को (तिरो दधताम्) अपने आंखों से परे रखो। इस मन्त्र से नगर और श्मशान के बीच में एक ऊंचे टीले या दीवार या आड़ रखने का विधान कर्मकाण्ड में माना गया है।

    टिप्पणी

    (च०) ‘अन्तर्मृत्युं दधतां पर्वतेन’ (तृ०) ‘जीवन्तु’ इति ऋ० यजु०। (द्वि०) ‘अपरोऽर्धमेतम्’ इति तै० आ०। (तृ०) ‘ज्योग् जीवन्तः’ ' इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    I set this border line of order and discipline for these living people. Let none of them trespass this border line into the other territory of death. Let them so live a long age of full hundred years, bearing though the fact of death within with adamantine walls of resistance by the discipline of health.

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    Translation

    I set this enclosure for the living; let not another of them now go to that goal; living a hundred numerous autumns, let them set an obstacle to death with a mountain.

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    Translation

    I (God) fix here this limit for living ones, let none of them, none other transgress this limit, may they survive hundred lengthened autumn and may they bury death under mountain (by the power of continence).

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    Translation

    I lay this law for the living: let none of these transgress this law. May they survive a hundred lengthened years, and may they keep death away through the fulness of knowledge and Brahmcharva.

    Footnote

    Pt.Khem Karan Das Trivedi has translated qwff as through the fulness of knowledge and Brahmcharya. See Rig, 10-18-4, and Yajur, 35-15. Maharsbi Dayananda has commented upon this verse in the Sanskar Vidhi in Jata Karma ceremony, I: God. God has fixed hundred years as the minimum age of man. Everyone should try not to die before this age.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३−(इमम्) प्रत्यक्षम् (जीवेभ्यः) प्राणधारकेभ्यः (परिधिम्) मर्यादाम् (एषाम्) जीवानां मध्ये (नु) सद्यः (मा गात्) न प्राप्नुयात् (अपरः) अन्यः। दुर्बलेन्द्रियः (अर्थम्) उषिकुषिगार्तिभ्यस्थन्। उ० २।४। ऋ गतौ−थन्। गन्तव्यम्। प्राप्तव्यं पदार्थसुखम् (एतम्) (शतम्) (जीवन्तः) प्राणान् धारयन्तः (शरदः) संवत्सरान् (पुरूचीः) बहूनि सर्वाण्यञ्चन्तीः (तिरो दधताम्) तिरोहितं कुर्वन्तु (मृत्युम्) (पर्वतेन) भृमृदृशियजिपर्वि०। उ० ३।११०। पर्व पूरणे−अतच्। ज्ञानपूर्त्या। ब्रह्मचर्यादिना ॥

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