अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
यो अ॒ग्निः क्र॒व्यात्प्र॑वि॒वेश॑ नो गृ॒हमि॒मं पश्य॒न्नित॑रं जा॒तवे॑दसम्। तं ह॑रामि पितृय॒ज्ञाय॑ दू॒रं स घ॒र्ममि॑न्धां पर॒मे स॒धस्थे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒ग्नि: । क्र॒व्य॒ऽअत् । प्र॒ऽवि॒वेश॑ । न॒: । गृ॒हम् । इ॒मम् । पश्य॑न् । इत॑रम् । जा॒तऽवे॑दसम् । तम् । ह॒रा॒मि॒ । पि॒तृ॒ऽय॒ज्ञाय॑ । दू॒रम् । स: । घ॒र्मम् । इ॒न्धा॒म् । प॒र॒मे । स॒धऽस्थे॑ ॥२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अग्निः क्रव्यात्प्रविवेश नो गृहमिमं पश्यन्नितरं जातवेदसम्। तं हरामि पितृयज्ञाय दूरं स घर्ममिन्धां परमे सधस्थे ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अग्नि: । क्रव्यऽअत् । प्रऽविवेश । न: । गृहम् । इमम् । पश्यन् । इतरम् । जातऽवेदसम् । तम् । हरामि । पितृऽयज्ञाय । दूरम् । स: । घर्मम् । इन्धाम् । परमे । सधऽस्थे ॥२.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जिस [क्रव्यात्] मांसभक्षक (अग्निः) अग्नि [समान सन्तापक पुरुष] ने (नः) हमारे (गृहम्) घर में (प्रविवेश) प्रवेश किया है, [सो] (इमम्) इस (इतरम्) दूसरे [उससे भिन्न शुभगुणी] (जातवेदसम्) ज्ञानवान् राजा को (पश्यन्) देखता हुआ (पितृयज्ञाय) पितरों [रक्षक विद्वानों] के सत्कार के लिये (तम्) उस [दुष्ट] को (दूरम्) दूर (हरामि) भेजता हूँ और (सः) वह [राजा] (परमे) बड़े उत्कृष्ट (सधस्थे) समाज में (घर्मम्) यज्ञ को (इन्धाम्) प्रकाशित करे ॥७॥
भावार्थ
प्रजागण चतुर नीतिज्ञ राजा के सहाय से क्रूर सन्तापकारी जन को निकाल देवें, जिससे सत्पुरुषों के सद्गुण संसार में फैलें और विजय पाने से राजा की कीर्ति बढ़े ॥७॥ यह मन्त्र कुछ भेद से है−ऋग्वेद १०।१६।१० ॥
टिप्पणी
७−(यः) (अग्निः) अग्निवत्सन्तापको दुष्टः (क्रव्यात्) मांसभक्षकः क्रूरः (प्रविवेश) प्रविष्टवान् (नः) अस्माकम् (गृहम्) निवासम्, (इमम्) प्रसिद्धम् (पश्यन्) अवलोकयन् (इतरम्) दुष्टाद् भिन्नम् (जातवेदसम्) प्रसिद्धज्ञानम् (तम्) दुष्टम् (हरामि) नयामि (पितृयज्ञाय) पितॄणां रक्षक विदुषां पूजनाय (सः) जातवेदाः (घर्मम्) यज्ञम्−निघ० ३।१७। (इन्धाम्) प्रकाशयतु (परमे) उत्कृष्टे (सधस्थे) सहस्थितिस्थाने ॥
विषय
मांस भोजन Vs. शाक भोजन
पदार्थ
१. एक घर में जब तक शाकभोजन चलता है तब तक वह घर हव्याद् अग्निवाला होता हे। हव्य पदार्थों का प्रयोग करते हुए ये लोग अपनी बुद्धियों के विकास के द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं, अत: यह 'हव्याद् अग्नि जातवेदस्' नामवाली होती है। (इमं इतरं जातवेदस्) = इस दूसरी जातवेदस् अग्नि को (पश्यन्) = देखती हुई (यः) = जो (क्रव्यात् अग्निः) = मांस भोजनवाली (अग्नि नः गृहम) = हमारे घरों में (प्रविवेश) = घुस आती है, (तम्) = उसको (दूरं हरामि) = मैं घर से दूर करता हूँ। हम कई बार स्वादवश या मांसभोजन की पौष्टिकता के भ्रमवश मांसभोजन में प्रवृत्त हो जाते हैं, यही 'क्रव्याद् अग्नि' का घर में प्रवेश है। २. इस क्रव्याद् अग्नि के प्रवेश से मानव के स्वभाव में क्रूरता व स्वार्थ का प्राबल्य होता है। तब हम बड़ों के आदर व सेवा को भूल जाते है, अत: इस क्रव्याद् अग्नि को मैं दूर करता हूँ, जिससे (पितृयज्ञाय) = हमारे घरों में पितृयज्ञ ठीक रूप से चलता रहे। (स:) = क्रव्याद् अनि को दूर करनेवाला व पितृयज्ञ को ठीक प्रकार से करनेवाला वह शाकभोजी पुरुष (परमे सधस्थे) = इस उत्कृष्ट, आत्मा व परमात्मा के मिलकर बैठने के स्थान हृदय में (घर्मम्) = उस दीति व मलों का क्षरण करनेवाले प्रभु को (इन्धाम) = दीप्त करे, अर्थात् हृदय में प्रभुदर्शन करनेवाला बने।
भावार्थ
हमारे घरों में मांसभोजन की प्रवृत्ति न हो। हम शाकभोजी रहते हुए स्वार्थ व क्रूरता से दूर रहें। इसप्रकार हमारे घरों में पितृयज्ञ [बड़ों का आदर] सदा चलता रहे और हदयों में हम प्रभु का दर्शन करनेवाले बनें।
भाषार्थ
(यः) जो (क्रव्याद् अग्निः) मांसभक्षक अग्नि (इतरम् जातवेदसम् पश्यन्) दूसरी जातवेदस् को देखती हुई भी (इमम्) इस (नः गृहम्) हमारे घर में (प्र विवेश) प्रविष्ट हो गई है, (तम्) उसे (पितृयज्ञाय) पितृयज्ञ के लिये (दूरम् हरामि) मैं दूर ले जाता हूं। (सः) वह क्रव्याद् अग्नि (परमे) बहुत लक्ष्मी वाले (सधस्थे) सहवास स्थान अर्थात् गृहस्थ में (घर्मम्) दूध की बटलोही को (इन्धाम्) गर्म करती रहे।
टिप्पणी
[मन्त्र वर्णन कवितामय है। अभिप्राय यह है कि अग्नियां दो प्रकार की हैं, जातवेदस् तथा क्रव्याद्। जातवेदस् अग्नि तो देवयान मार्ग की है और क्रव्याद् अग्नि पितृयान मार्ग की। देवयान मार्ग तो देवपथिकों का है, जिसमें ब्रह्मचर्य, सत्य और तप आदि का सेवन करना होता है। और पितृयान मार्ग उनका है जोकि सन्तानोत्पत्ति द्वारा मातापिता बनना चाहते हैं। इस मार्ग में गृहस्थी के चुल्ले में दूध आदि पक्ते रहते हैं, पितृयज्ञ होते रहते हैं तथा गृहस्थियों के लिये निश्चित यज्ञ होते रहते हैं। इस मार्ग में यतः शक्ति क्षीण होती रहती हैं, अतः इस मार्ग पर क्रव्याद् अग्नि का राज्य होता है। शक्ति के क्षीण होते रहने के कारण इस मार्ग के पथिकों की १०० वर्षों से पहिले ही मृत्यु हो जाने की सम्भावना रहती है, अतः इन्हें क्रव्याद् अग्नि का शिकार बनना पड़ता है। जातवेदस् अग्नि वाले देव व्यक्ति क्रव्याद् अग्नि को दूर करते रहते हैं, अतः क्रव्याद् अग्नि श्मशान पर अधिकार जमाती है। सधस्थ का अर्थ है "साथ-साथ बैठने का स्थान" जोकि पारिवारिक व्यक्तियों का स्थान है। परमे= पर+मा (लक्ष्मी = बहुत लक्ष्मी वाले गृहस्थ में)]।
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(यः) जो (क्रव्यात् अग्निः) कच्चा मांस खाने वाला अग्नि के समान प्रजापीड़क जीव, डाकू या व्याघ्र आदि (इतरम्) अपने से विपरीत, दूसरे (जातवेदसम्) सब विद्वान् अग्नि के समान ही दुष्टों के सन्तापकारी राजा को (पश्यन्) देखता हुआ भी (नः गृहं प्रविवेश) हमारे घर में घुस जाय तो (तम्) उसको (पितृयज्ञाय) राष्ट्र के पालक शासकों के ‘यज्ञ’ उनके कर्त्तव्य पालन के निमित्त (दूरं हरामि) दूर खेच ले जाऊं जिससे (सः) वह (परमे सधस्थे) परम स्थान, राजकीय स्थान में (धर्मम् इन्धाम्) सन्ताप प्राप्त करे। अग्नियों के पक्ष में—गृह में गृह्याग्नि और आहवनीयाग्नि के होते हुए जो ‘क्रव्यात्’—शवानि अर्थात् मृत्यु घर में आ जाय तो उसके ‘पितृयज्ञ’ = शवदाह के निमित्त श्मशान में ले जाय। वह वहां परम दूर श्मशान स्थान में नरमेध यज्ञ करे। अर्थात् प्रतिनिधिवाद से इतर जातवेदा = नये नवयुवक गृहपति को देख कर यदि मृत्यु बूढ़े पर आ जाय तो उसको दूर श्मशान में लेजा कर अग्नि में भस्म कर दे। शव वहां ही तप करे।
टिप्पणी
(प्र०) ‘वोगृह’ (च०) ‘सधर्ममिन्वात्’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
If life-consuming Agni of average activity were to enter this home, yours though,then watching this other, Jatavedas Agni of higher and divine purpose, I take that away for the service of parents, grand parents and other forefathers. Let it light and add to the heat and light of the highest region and carry our yajna there.
Translation
If the flesh-eating Agni hath entered our house, seeing this other Jatavedas, him I take after for the Father's sacrifice; let him kindle the hot drink in the highest station.
Translation
I use fire which is used for the purposes of removing disease, killing foes and wild beasts has entered into my house (to become all in all), I, seeing the other one as Jatvedas (established these) remove it away to assign it for the purpose of giving health and pleasure to father and mother (alive). Let that fire (which is Jatvedas) get ablaze and inflame the caldron in Yaina.
Translation
The meat-eating culprit, ferocious like fire, who enters our house, knowing the superior personality of the learned king, is taken away far by me to be punished by the state officials. May he be tried and sentenced in a supreme court of justice.
Footnote
See Rig, 10-16-10. Me: An important public man.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(यः) (अग्निः) अग्निवत्सन्तापको दुष्टः (क्रव्यात्) मांसभक्षकः क्रूरः (प्रविवेश) प्रविष्टवान् (नः) अस्माकम् (गृहम्) निवासम्, (इमम्) प्रसिद्धम् (पश्यन्) अवलोकयन् (इतरम्) दुष्टाद् भिन्नम् (जातवेदसम्) प्रसिद्धज्ञानम् (तम्) दुष्टम् (हरामि) नयामि (पितृयज्ञाय) पितॄणां रक्षक विदुषां पूजनाय (सः) जातवेदाः (घर्मम्) यज्ञम्−निघ० ३।१७। (इन्धाम्) प्रकाशयतु (परमे) उत्कृष्टे (सधस्थे) सहस्थितिस्थाने ॥
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