Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 49
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    53

    अ॑होरा॒त्रे अन्वे॑षि॒ बिभ्र॑त्क्षे॒म्यस्तिष्ठ॑न्प्र॒तर॑णः सु॒वीरः॑। अना॑तुरान्त्सु॒मन॑सस्तल्प॒ बिभ्र॒ज्ज्योगे॒व नः॒ पुरु॑षगन्धिरेधि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हो॒रा॒त्रे इति॑ । अनु॑ । ए॒षि॒ । बिभ्र॑त् । क्षे॒म्य: । तिष्ठ॑न् । प्र॒ऽतर॑ण: । सु॒ऽवीर॑: । अना॑तुरान् । सु॒ऽमन॑स: । त॒ल्प॒ । बिभ्र॑त् । ज्योक् । ए॒व । न॒: । पुरु॑षऽगन्धि: ।‍ ए॒धि॒ ॥२.४९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहोरात्रे अन्वेषि बिभ्रत्क्षेम्यस्तिष्ठन्प्रतरणः सुवीरः। अनातुरान्त्सुमनसस्तल्प बिभ्रज्ज्योगेव नः पुरुषगन्धिरेधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहोरात्रे इति । अनु । एषि । बिभ्रत् । क्षेम्य: । तिष्ठन् । प्रऽतरण: । सुऽवीर: । अनातुरान् । सुऽमनस: । तल्प । बिभ्रत् । ज्योक् । एव । न: । पुरुषऽगन्धि: ।‍ एधि ॥२.४९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 49
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमेश्वर !] तू (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (क्षेम्यः तिष्ठन्) सकुशल ठहरता हुआ, (प्रतरणः) बढ़ाता हुआ और (सुवीरः) महावीर होकर (अहोरात्रे) दिन-राति (अनु) निरन्तर (एषि) चलता है। (तल्प) हे सहारा देनेवाले [ईश्वर !] (नः) हमको (ज्योक्) बहुत काल तक (एव) निश्चय कर के (अनातुरान्) नीरोग और (सुमनसः) प्रसन्नचित्त (बिभ्रत्) रखता हुआ तू (पुरुषगन्धिः) पुरुषों को शोभा देनेवाला (एधि) हो ॥४९॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि परमेश्वर को सर्वसुखदाता जान कर प्रयत्न करें कि वे सदा स्वस्थ और प्रसन्नचित्त रह कर मनुष्यों के बीच शोभा बढ़ावें ॥४९॥

    टिप्पणी

    ४९−(अहोरात्रे) रात्रिदिने (अनु) निरन्तरम् (एषि) गच्छसि। व्याप्नोषि (बिभ्रत्) धारयन् (क्षेम्यः) सकुशलः (तिष्ठन्) वर्तमानः (प्रतरणः) प्रवर्धनः (सुवीरः) महावीरः (अनातुरान्) नीरोगान् (सुमनसः) प्रसन्नचित्तान् (तल्प) खष्पशिल्पशष्प०। उ० ३।२८। तल प्रतिष्ठाकरणे−प प्रत्ययः। हे प्रतिष्ठाप्रद परमेश्वर ! (बिभ्रत्) धारयन् (ज्योक्) चिरकालम् (नः) अस्मान् (पुरुषगन्धिः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। पुरुष+गन्ध अर्दने, गतौ, याचने शोभने च−इन्। पुरुषान् गन्धयते शोभयते यः स परमेश्वरः (एधि) भव ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुरुषगन्धिः

    पदार्थ

    १. हे (तल्प) = सर्वाधार प्रभो! सबके विश्रामस्थानभूत प्रभो! आप (अहोरात्रे) = दिन-रात (बिभ्रत्) = सबको धारण करते हुए (अनु एषि) = अनुकूल गतिवाले होते हो। (क्षेभ्य:) = सबके क्षेम करने में उत्तम, (तिष्ठन्) = सदा खड़े हुए-सदा सावधान (प्रतरण:) = भव-सागर से तरानेवाले, (सुवीरः) = हमारे शत्रुओं को सम्यक् कम्पित करके दूर करनेवाले हैं। २. हे प्रभो! आप (न:) = हम (अनातुरान्) = नौरोग तथा (सुमनस:) = उत्तम मनवालों को (बिभ्रत्) = धारण करते हुए (ज्योग् एव) = दीर्घकाल तक ही (पुरुषगन्धि: एधि) = 'पुनाति–रुणद्धि-स्यति' अपने को पवित्र करनेवाले, अपने में शक्ति का संयम [निरोध] करनेवाले तथा शत्रुओं का अन्त करनेवाले पुरुषों के साथ सम्बन्धवाले [गन्ध-सम्बन्ध] होओ। हम पुरुष बनकर आपके सम्बन्धी बन पाएँ।

    भावार्थ

    वे प्रभु सर्वांधार हैं, दिन-रात हमारा धारण कर रहे हैं। हमें आधि-व्याधि-शून्य बनाते हैं। वे प्रभु हमारे वस्तुत: सम्बन्धी होते हैं यदि हम 'अपने को पवित्र बनाएँ, अपने में शक्ति का संयम करें तथा काम-क्रोध आदि का अन्त कर दें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (अहोरात्रे) दिन-और-रात (बिभ्रत्) सब का भरण-पोषण करता हुआ तू (अनु एषि) निरन्तर सक्रिय हो रहा है, (क्षेम्यः तिष्ठन्) सब का क्षेम करता हुआ तू जगत् में स्थिर हो रहा है, (प्रतरणः) कष्टों से तैराने वाला, तथा (सुवीरः) श्रेष्ठ वीर या सर्वप्ररेक तू है। (तल्प) हे शय्यारूप ! (अनातुरान्, सुमनसः, विभ्रत्) आरोग्यसम्पन्नों और शिवसंकल्पी मन वालों को सदा परिपुष्ट करता हुआ तू (ज्योग् एव) सदा ही (पुरुषगन्धिः) पौरुषरूपी सुगन्ध से सुगन्धित हुआ (नः) हमें (एधि) प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    [सुवीरः = परमेश्वर सर्वतः श्रेष्ठ वीर है, सब की रक्षा करता और किसी का भी विनाशक नहीं है, सब को न्यायानुसार फल देता है; या सु + वि + ईर् (गतौ) अर्थात् सर्वप्रेरक है। तल्प = शय्या, शयन करने का पलङ्ग। जैसे रात्रि के समय थके मनुष्य पलङ्ग पर आराम पाते हैं, वैसे सांसारिक धन्धों से विमुख हो कर विरक्त, परमेश्वराश्रय में विश्राम पाते हैं। इसी भावना के अनुसार वैदिक साहित्य में परमेश्वर को "उपस्तरण" (बिछौना), तथा "अपिधान (ओढ़नी) भी कहा है। पुरुषगन्धिः = परमेश्वर सदा पौरुष कर्म तथा पुरुषार्थ में तत्पर रहता है।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (तल्प) सबके प्रतिष्ठापक ! पलङ्ग के समान सबको सुख से अपने में विश्राम देने हारे परमेश्वर एवं राजन् ! तू (अहोरात्रे) दिन और रात (बिभ्रत्) हमें धारण पोषण करता हुआ (क्षेम्यः) सबको कुशल मङ्गल करने हारा (सुवीरः) उत्तम वीर्यवान्, उत्तम वीर पुरुषों से युक्त (प्रतरणः) नौका के समान सबको पार तारने वाला (तिष्ठन्) स्थिर रूप से विराजमान होकर भी (अनु एषि) सबके अनुकूल होकर प्राप्त है। तू (सुमनसः) शुभ चित्त वाले (अनातुरान्) काम क्रोधादि से अनातुर, शान्त, तृष्णरहित, स्वस्थ पुरुषों को अपने में (बिभ्रत्) धारण करता हुआ भी हे (तल्प) पलङ्ग के समान सबको विश्राम देने हारे ! (ज्योक् एव) चिरकाल से और चिर-काल तक (नः) हमें (पुरुष-गन्धिः*) पुरुषों को उनके पाप कर्मों का दण्ड देने वाला दण्ड देने वाला ‘जनार्दन’ होकर (एधि) विराजमान है।

    टिप्पणी

    ४८, ४६ दोनों मन्त्रों में जर्नादन का मत्स्यावतार और मनु के वेदमयी नौका की कल्पना का मूलमात्र प्राप्त होता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    Day and night you move on, bearing the burden of the universe, yet still and constant, giver of peace and saviour over the floods and storms of existence, holiest potent sustenance and support of the brave, mainstay of the healthy and happy minds, you are the giver of the fragrance of life for humanity. Come, O Lord, and always bless us with health, happiness and the fragrance of life.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Day and night thou goest after, bearing, standing comfortable, prolonging (life), having good heroes; bearing, O couch, healthful, well-minded ones, do, thou long be for us smelling of men.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    This bed is the giver of rest day and night and is very very comfortable. It stands supportine the sleepers like a brave man. This bearing happy minded and undiscased men always remain with us with smell of man.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O God, the Giver of comfort to mankind like a couch, rearing and nourishing us day and night, the well-wisher of all, Mighty in power, steadfast, the Releaser of humanity from worldly griefs like a boat that makes the passengers cross the stream, Thou art ever active. Sustaining in Thyself the noble-minded and sinless persons, from times immemorial Thou art the Punisher of men for their ill deeds!

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४९−(अहोरात्रे) रात्रिदिने (अनु) निरन्तरम् (एषि) गच्छसि। व्याप्नोषि (बिभ्रत्) धारयन् (क्षेम्यः) सकुशलः (तिष्ठन्) वर्तमानः (प्रतरणः) प्रवर्धनः (सुवीरः) महावीरः (अनातुरान्) नीरोगान् (सुमनसः) प्रसन्नचित्तान् (तल्प) खष्पशिल्पशष्प०। उ० ३।२८। तल प्रतिष्ठाकरणे−प प्रत्ययः। हे प्रतिष्ठाप्रद परमेश्वर ! (बिभ्रत्) धारयन् (ज्योक्) चिरकालम् (नः) अस्मान् (पुरुषगन्धिः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। पुरुष+गन्ध अर्दने, गतौ, याचने शोभने च−इन्। पुरुषान् गन्धयते शोभयते यः स परमेश्वरः (एधि) भव ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top