अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 38
ऋषिः - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
38
मुहु॒र्गृध्यैः॒ प्र व॑द॒त्यार्तिं॒ मर्त्यो॒ नीत्य॑। क्र॒व्याद्यान॒ग्निर॑न्ति॒काद॑नुवि॒द्वान्वि॒ताव॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठमुहु॑: । गृध्यै॑: । प्र । व॒द॒ति॒ । आर्ति॑म् । मर्त्य॑: । नि॒ऽइत्य॑ । क्र॒व्य॒ऽअत् । यान् । अ॒ग्नि: । अ॒न्ति॒कात् । अ॒नु॒ऽवि॒द्वान् । वि॒ऽताव॑ति ॥२.३८॥
स्वर रहित मन्त्र
मुहुर्गृध्यैः प्र वदत्यार्तिं मर्त्यो नीत्य। क्रव्याद्यानग्निरन्तिकादनुविद्वान्वितावति ॥
स्वर रहित पद पाठमुहु: । गृध्यै: । प्र । वदति । आर्तिम् । मर्त्य: । निऽइत्य । क्रव्यऽअत् । यान् । अग्नि: । अन्तिकात् । अनुऽविद्वान् । विऽतावति ॥२.३८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(मर्त्यः) [वह] मनुष्य (आर्तिम्) विपत्ति में (नीत्य) नीचे जाकर (गृध्यैः) लोभियों से (मुहुः) बार-बार (वदति) बातचीत करता है, (यान्=यम्) जिस [मनुष्य] को (क्रव्यात्) मांसभक्षक (अग्निः) अग्नि [समान सन्तापकारी दोष आदि] (अन्तिकात्) निकट से (अनुविद्वान्) निरन्तर जानता हुआ (वितावति) सता डालता है ॥३८॥
भावार्थ
दुराचारी पुरुष अपनी विपत्ति बार-बार उन दुष्टों से कहता है, जिन के फन्दे में पड़कर यह सब कष्ट पाया है ॥३८॥ इस मन्त्र का उत्तरार्ध आगे मन्त्र ५२ में है ॥
टिप्पणी
३८−(मुहुः) बारं बारम् (गृध्यैः) ऋदुपधाच्चाक्लृपिचृतेः। पा० ३।१।११०। गृधु लिप्सायाम्−क्यप्। लोभिभिः सह (प्र) (वदति) कथयति (आर्तिम्) आङ्+ऋ गतौ हिंसायां च−क्तिन्। पीडाम् (मर्त्यः) मनुष्यः (नीत्य) नि+इण् गतौ−ल्यप्। नीचैः प्राप्य (क्रव्यात्) मांसभक्षकः (यान्) एकवचनस्य बहुवचनम्। यं मर्त्यम् (अग्निः) अग्निवत्सन्तापको दोषादिः (अन्तिकात्) समीपात् (अनुविद्वान्) निरन्तरेण जानन् (वितावति) तु हिंसायाम्−लट्, शपो अलुक्छान्दसः। वितौति। विशेषेण हिनस्ति ॥
विषय
विषयों का आकर्षण
पदार्थ
१. (यान्) = जिन पुरुषों को (क्रव्यात् अग्निः) = यह मांसभक्षक अग्नि (अन्तिकात्) = समीप से (अनुविद्वान्) = अनुक्रम से वेदना को प्रास कराता हुआ [विद्-वेदना का अनुभव] (वितावति) = [त हिंसायाम्] विशेषरूप से हिंसित करता है, वह (मर्त्यः) = मनुष्य (आर्तिं नि इत्य) = पीड़ा को निश्चय से प्राप्त करके भी (मुहः) = फिर (गध्यैः प्रवदति) = भोगलिप्सुओं के साथ बात करता है। अपने भोगप्रवण साथियों के वातावरण से दूर नहीं हो पाता। मांसभोजन आरम्भ में बेशक स्वादिष्ट व उत्तेजक हो, परन्तु कुछ देर बाद यह पीड़ाओं व रोगों का कारण बनने लगता है। धीमे धीमे यह वेदना को प्राप्त कराता हुआ हिंसा का कारण बनता है, परन्तु विषयों का स्वभाव ही ऐसा है कि मनुष्य पीड़ित होकर भी फिर अपने भोगप्रवण साथियों के संग में इन भोगों में आसक्त हो जाता है।
भावार्थ
मांसभोजन विविध पीड़ाओं का कारण बनता है, परन्तु मांसभोजनादि में आसक्त पुरुष पीड़ित होकर भी इन विषयों को छोड़ नहीं पाता।
भाषार्थ
(मर्त्यः) मरणधर्मा रोगी (आर्तिम्) कष्ट को (नीत्य) प्राप्त हो कर, (गृध्यैः) लोभी उत्तमर्णों के साथ (मुहुः) बार-बार धन प्राप्ति के लिये (प्रवदति) व्यर्थ में बात करता है, (यान्) जिस-जिस का कि (अग्निः) क्रव्याद् अग्नि, (विद्वान्) मानो जानती हुई सी, (अन्तिकात्) समीप होकर (अनु वितावति) अनुगमन करती रहता है।
टिप्पणी
[यक्ष्मरोगी, यक्ष्मरोग से पीड़ित हुआ, उत्तमर्णों से धन के लिये व्यर्थ में बातचीत करता है, परन्तु लोभी उत्तमर्ण, उस की आसन्न मृत्यु जान कर, सूद पर उसे धन नहीं देते। नीत्य = नि + इण् + ल्यप्। अनु वितावपि = अनु + वि + तु (गतौ)]
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(यं) जिसके (अन्तिकात्) समीप शव को खाने वाला (अग्निः) अग्नि रहता है, वह पुरुष (गृध्यैः) अपने अभिलाषा के अपने पात्र, अपने प्रिय मृतों से मानो (मुहुः) वार वार (प्रवदति) बात चीत करता और वह (मर्त्यः) मनुष्य (आर्तिम्) पीड़ा को (नि-इत्य) प्राप्त होकर (अनु विद्वान्) पीछे से भी वेदना या दुःख को प्राप्त होकर (वितायति) विविध प्रकार से कष्ट पाता है।
टिप्पणी
(च०) ‘विधावेति’ इति लड्विग्कामितः। बहुक्रुधिः ध्रवदन्त्यन्ति तर्महोन्वेति च। क्रव्यादमग्निरनुविद्वान् विभावति [ ? ] इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
Whoever the men Kravyadagni pursues, knowing them and afflicting them at the closest, the victim, having been reduced to ruin, has to go to cut¬ throat money-sharks and plead for a loan again and again in order to survive.
Translation
A mortal, going down to-mishap, speaks forth repeatedly - with greedy ones; whom the flesh-eating Agni, from near by - after-knowing, follows.
Translation
The men whom this Kravyad fire very closely keeps into its clutches, suffering from pains speak again and again in greeds.
Translation
The man, to whom the vice of meat-eating, troublesome like fire, sticks, knowing his nature, close at hand, is put to distress, and he cries again and again for objects he covets.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३८−(मुहुः) बारं बारम् (गृध्यैः) ऋदुपधाच्चाक्लृपिचृतेः। पा० ३।१।११०। गृधु लिप्सायाम्−क्यप्। लोभिभिः सह (प्र) (वदति) कथयति (आर्तिम्) आङ्+ऋ गतौ हिंसायां च−क्तिन्। पीडाम् (मर्त्यः) मनुष्यः (नीत्य) नि+इण् गतौ−ल्यप्। नीचैः प्राप्य (क्रव्यात्) मांसभक्षकः (यान्) एकवचनस्य बहुवचनम्। यं मर्त्यम् (अग्निः) अग्निवत्सन्तापको दोषादिः (अन्तिकात्) समीपात् (अनुविद्वान्) निरन्तरेण जानन् (वितावति) तु हिंसायाम्−लट्, शपो अलुक्छान्दसः। वितौति। विशेषेण हिनस्ति ॥
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