अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 30
ऋषिः - भृगुः
देवता - मृत्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
72
मृ॒त्योः प॒दं यो॒पय॑न्त॒ एत॒ द्राघी॑य॒ आयुः॑ प्रत॒रं दधा॑नाः। आसी॑ना मृ॒त्युं नु॑दता स॒धस्थेऽथ॑ जी॒वासो॑ वि॒दथ॒मा व॑देम ॥
स्वर सहित पद पाठमृ॒त्यो: । प॒दम् । यो॒पय॑न्त: । आ । इ॒त॒ । द्राघी॑य: ।आयु॑: । प्र॒ऽत॒रम् । दधा॑ना: । आसी॑ना: । मृ॒त्युम् । नु॒द॒त॒ । स॒धऽस्थे॑ । अथ॑ । जी॒वास॑: । वि॒दथ॑म् । आ । व॒दे॒म॒ ॥२.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
मृत्योः पदं योपयन्त एत द्राघीय आयुः प्रतरं दधानाः। आसीना मृत्युं नुदता सधस्थेऽथ जीवासो विदथमा वदेम ॥
स्वर रहित पद पाठमृत्यो: । पदम् । योपयन्त: । आ । इत । द्राघीय: ।आयु: । प्रऽतरम् । दधाना: । आसीना: । मृत्युम् । नुदत । सधऽस्थे । अथ । जीवास: । विदथम् । आ । वदेम ॥२.३०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे वीरो !] (मृत्योः) मृत्यु के (पदम्) पद [चाल] को (योपयन्तः) रोकते हुए, (द्राघीयः) अधिक दीर्घ और (प्रतरम्) अधिक प्रकृष्ट (आयुः) जीवन को (दधानाः) धारण करते हुए तुम (आ इत) आओ। (सधस्थे) सहस्थान [समाज] में (आसीनाः) बैठे हुए तुम (मृत्युम्) मृत्यु को (नुदत) ढकेलो, (अथ) फिर (जीवासः) जीवते हुए हम (विदथम्) विज्ञान का (आ वदेम) उपदेश करें ॥३०॥
भावार्थ
जब विद्वान् लोग उत्तम कर्म करके अपनी कीर्ति बढ़ाते हैं, उन्हें देखकर अन्य पुरुष भी उत्तम कर्म करने लगते हैं ॥३०॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१८।२ ॥
टिप्पणी
३०−(मृत्योः) (पदम्) गमनम् (योपयन्तः) विमोहयन्तः निरोधयन्तः (एत) आगच्छत (द्राघीयः) दीर्घतरम् (आयुः) जीवनम् (प्रतरम्) प्रकृष्टतरम् (दधानाः) धारयन्तः (आसीनाः) उपविशन्तः (मृत्युम्) (नुदत) प्रेरयत (सधस्थे) सहस्थाने। समाजे (अथ) अनन्तरम् (जीवासः) जीवाः। जीवन्तः (विदथम्) ज्ञानम् (आवदेम) उपदिशेम ॥
विषय
सधस्थे आसीनाः
पदार्थ
१. (मृत्योः पदम्) = मृत्यु के पद को-रोगों के कारणों को (योपयन्त:) = मिटाते हुए (एत) = [आ इत] समन्तात् कर्तव्य-कर्मों में गतिशील होओ। इसप्रकार द्(राधीय:) = दीर्घ व (प्रतरम्) = उत्कृष्ट (आयुः दधाना:) = जीवन को धारण करते हुए होओ। २. (सधस्थे) = प्रभु के साथ मिलकर बैठने के स्थान हृदय में (आसीना:) = बैठे हुए, अर्थात् हृदय में प्रभु का ध्यान करते हुए (मृत्युं नुदत) = मृत्यु को परे धकेल दो। (अथ) = अब (जीवास:) = जीवनीशक्ति से परिपूर्ण हुए-हुए हम (विदथम् आवदेम) = समन्तात् ज्ञान का प्रवचन करें।
भावार्थ
मृत्यु के कारणों को दूर करते हुए हम दीर्घ, उत्कृष्ट जीवन को धारण करें। हृदय में प्रभु का ध्यान करते हुए मृत्यु को दूर करें। जीवनशक्ति से परिपूर्ण होते हुए हम ज्ञान का प्रवचन करें।
भाषार्थ
(द्राघीयः आयुः) दीर्घ आयु को (प्रतरम्) अधिक प्रकृष्ट कर के (दधानाः) धारण करते हुए (मृत्योः पदं योपयन्तः) और मृत्यु के पैर को व्यामोहित करते हुए (एत) योगमार्ग की ओर आओ। (सधस्थे) उपासना के लिये इकट्ठे बैठने के स्थान में (आसीनाः) योगासन में बैठ कर (मृत्युम्) अकालमृत्यु को (नुदता) धकेलो, (अथ) तत्पश्चात् (जीवासः) जीवित हम (विदथम् आ वदेम) ज्ञानगोष्ठी में ज्ञान चर्चा करें।
विषय
क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(मृत्योः) मृत्यु के (पदं) पद, आने के कारणों को (योपयन्तः) मिटाते हुए (एतत्) इस ही (आयुः) आयु, जीवन को (द्राघीयः) अति दीर्धं और (प्रतरं) सब कष्टों से पार तराने योग्य (दधानाः) बनाते हुए (आसीनाः) व्रत, उपवास, यम, नियम आदि से स्थिर होकर बैठते हुए (मृत्युं) मृत्यु अर्थात् देह के आत्मा से छूटजाने की घटना को (नुदत) दूर भगा दो। (अथ) और हे (जीवासः) जीवो ! (सधस्थे) एक ही स्थान पर एकत्र होकर हम सब लोग (विदथम्) ज्ञान-कथा या ज्ञान-यज्ञ की (आ वदेम) चर्चा करें, एक दूसरे को ज्ञान का उपदेश करें।
टिप्पणी
(तृ० च०) आप्यायमानाः प्रजया धनेन शुद्धाः पूता भवत यज्ञियासः। इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Nashanam
Meaning
Effacing the pain of death, bearing a full long age unto completion and fulfilment, come hither and, sitting on the seat of yoga in the house of holiness, calm and undisturbed, warding off the onslaught of death, let us all, living happily, celebrate the life and beauties of the social order.
Translation
Come ye, obstructing the track of death, assuming further on a longer life-time;. sitting in your station, thrust ye death; then may we, living, speak to the council.
Translation
O ye jivas, You all steady in postures of Yoga putting obstcles in the working way of death, making even this existence prolonged and happy drive away death. We also in our home discuss and perform Yajna.
Translation
Avoiding the approach of death, prolonging this life, and making it fit to release us from all afflictions, exercising yogic practices, keep death at a distance. O mortals, sitting in an Assembly, let us exchange ideas on different topics of knowledge.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३०−(मृत्योः) (पदम्) गमनम् (योपयन्तः) विमोहयन्तः निरोधयन्तः (एत) आगच्छत (द्राघीयः) दीर्घतरम् (आयुः) जीवनम् (प्रतरम्) प्रकृष्टतरम् (दधानाः) धारयन्तः (आसीनाः) उपविशन्तः (मृत्युम्) (नुदत) प्रेरयत (सधस्थे) सहस्थाने। समाजे (अथ) अनन्तरम् (जीवासः) जीवाः। जीवन्तः (विदथम्) ज्ञानम् (आवदेम) उपदिशेम ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal