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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 17
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    47

    यस्मि॑न्दे॒वा अमृ॑जत॒ यस्मि॑न्मनु॒ष्या उ॒त। तस्मि॑न्घृत॒स्तावो॑ मृ॒ष्ट्वा त्वम॑ग्ने॒ दिवं॑ रुह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मि॑न् । दे॒वा: । अमृ॑जत । यस्मि॑न् । म॒नु॒ष्या᳡: । उ॒त । तस्मि॑न् । घृ॒त॒ऽस्ताव॑: । मृ॒ष्वा । आ । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । दिव॑म् । रु॒ह॒ ॥२.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मिन्देवा अमृजत यस्मिन्मनुष्या उत। तस्मिन्घृतस्तावो मृष्ट्वा त्वमग्ने दिवं रुह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मिन् । देवा: । अमृजत । यस्मिन् । मनुष्या: । उत । तस्मिन् । घृतऽस्ताव: । मृष्वा । आ । त्वम् । अग्ने । दिवम् । रुह ॥२.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्मिन्) जिस [ज्ञान] में (देवाः) विजय चाहनेवाले (उत) और (यस्मिन्) जिस [ज्ञान] में (मनुष्याः) मननशील पुरुष (अमृजत) शुद्ध हुए हैं। (तस्मिन्) उस [ज्ञान] में (मृष्ट्वा) शुद्ध होकर, (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (घृतस्तावः) ज्ञानप्रकाश की स्तुति करनेवाला (त्वम्) तू (दिवम्) आनन्द में (आ रुह) ऊँचा हो ॥१७॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य पूर्वज महात्माओं के अनुकरण से आत्मा को शुद्ध करते हैं, वे अत्यन्त आनन्द पाते हैं ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(यस्मिन्) ज्ञाने (देवाः) विजिगीषवः (अमृजत) शुद्धा अभवन् (यस्मिन्) (मनुष्याः) मननशीलाः (उत) अपि (तस्मिन्) ज्ञाने (घृतस्तावः) घृतस्य ज्ञानप्रकाशस्य स्तावः स्तुतिर्यस्य सः (मृष्ट्वा) शुद्ध्वा (त्वम्) (अग्ने) हे अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (दिवम्) मोदम्। हर्षम् (आ रुह) अधितिष्ठ ॥

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    विषय

    घृतस्ताव का धुलोक में आरोहण

    पदार्थ

    १. (यस्मिन्) = जिस प्रभु में (देवा: अमृजत) = देववृत्ति के पुरुष अपना शोधन करते हैं, (उत) = और (यस्मिन्) = जिस प्रभु में (मनुष्या:) = मननशील पुरुष भी विचारपूर्वक कर्म करनेवाले मनुष्य भी अपना शोधन करते हैं, (तस्मिन्) = उस प्रभु में ही है (घृतस्तावः) = उस ज्ञानदीप्त [घू दीप्तौ] निर्मल [क्षरणे] प्रभु का स्तवन करनेवाले (अग्ने) = अग्रणी-अपने को आगे और आगे ले-चलनेवाले पुरुष! (त्वम्) = तू (मृष्ट्वा) = अपना शोधन करके (दिवं रुह) = प्रकाशमय मोक्षलोक में आरोहण कर ।

    भावार्थ

    प्रभु का उपासन करनेवाले पुरुष आत्मजीवन का शोधन करते हुए मोक्षलोक में आरोहण करते हैं।

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    भाषार्थ

    (यस्मिन्) जिस यज्ञाग्नि में (देवाः) विद्वानों ने (अमृजत) अपने-आप को शुद्ध किया, (उत) तथा (मनुष्याः) सामान्य मनुष्यों ने (यस्मिन्) जिस यज्ञाग्नि में अपने आप को शुद्ध किया, (तस्मिन्) उस यज्ञाग्नि में (घृतस्तावः) घृताहुतियों द्वारा परमेश्वर का स्तवन करने वाले हे रोगिन् ! (मृष्ट्वा) अपने को शुद्ध करके, (अग्ने) हे अग्नि के समान शुद्ध हुआ हुआ (त्वम्) तू (दिवम्) मोद और कान्ति के [शिखर पर] (रुह) आरोहण कर।

    टिप्पणी

    [परमेश्वर की स्तुति पूर्वक शुद्ध घृताहुतियां देने का वर्णन है। इस से गृहशुद्धि होती है और व्यक्ति सुखी होता और शारीरिक कान्ति प्राप्त करता है। दिव्= मोद, कान्ति (धातुपाठ)]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यस्मिन्) जिसमें आश्रय पाकर (देवाः) देव, विद्वान् आत्म-ज्ञानी पुरुष (अमृजत) शुद्ध, बुद्ध हो जाते हैं और (यस्मिन्) जिसके आश्रय में आकर (मनुष्याः उत) मनुष्य भी पवित्र हो जाते हैं (तस्मिन्) उस परम पद तुझ में ही हे आत्मन् ! (त्वम्) तू (घृतस्तावः) उस प्रकाशस्वरूप ‘घृत’—अमृत रूप परमात्मा की स्तुति करता हुआ (मृष्ट्वा) अपने पापों से पवित्र होकर हे (अग्ने) ज्ञानवान् जीव ! तू (दिवम्) उस पर प्रकाशमय मोक्षलोक में (रूह) जा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    Hey Agni, O man pure as fire, having merged in and purified yourself through yajnic discipline, you too rise to the light of heaven with oblations of ghrta into that sacred fire into which divinities merged and purified themselves, and into which humanity merged and purified itself in body, mind and soul.

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    Translation

    On what the gods wiped off, on what human beings also - on that having wiped off the drops of ghee, O Agni, do thou mount the sky.

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    Translation

    Through the means of which the learned men become free from all impurities, through the means of which the men performing Yajna make them purified, pouring into that the oblations of ghee, rise O man to the higher state of enlightenment.

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    Translation

    O wise soul, under Whose shelter the sages and ordinary mortals have purified themselves, praising that Divine God, and releasing thyself from sins, mount up to the abode of salvation!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(यस्मिन्) ज्ञाने (देवाः) विजिगीषवः (अमृजत) शुद्धा अभवन् (यस्मिन्) (मनुष्याः) मननशीलाः (उत) अपि (तस्मिन्) ज्ञाने (घृतस्तावः) घृतस्य ज्ञानप्रकाशस्य स्तावः स्तुतिर्यस्य सः (मृष्ट्वा) शुद्ध्वा (त्वम्) (अग्ने) हे अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (दिवम्) मोदम्। हर्षम् (आ रुह) अधितिष्ठ ॥

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