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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 50
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    264

    ते दे॒वेभ्य॒ आ वृ॑श्चन्ते पा॒पं जी॑वन्ति सर्व॒दा। क्र॒व्याद्यान॒ग्निर॑न्ति॒कादश्व॑ इवानु॒वप॑ते न॒डम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । दे॒वेभ्य॑: । आ । वृ॒श्च॒न्ते॒ । पा॒पम् । जी॒व॒न्ति॒ । स॒र्व॒दा । क्र॒व्य॒ऽअत् । यान् ।‍ अ॒ग्नि: । अ॒न्ति॒कात् । अश्व॑:ऽइव । अ॒नु॒ऽवप॑ते । न॒डम् ॥२.५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते देवेभ्य आ वृश्चन्ते पापं जीवन्ति सर्वदा। क्रव्याद्यानग्निरन्तिकादश्व इवानुवपते नडम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते । देवेभ्य: । आ । वृश्चन्ते । पापम् । जीवन्ति । सर्वदा । क्रव्यऽअत् । यान् ।‍ अग्नि: । अन्तिकात् । अश्व:ऽइव । अनुऽवपते । नडम् ॥२.५०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 50
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (ते) वे लोग (देवेभ्यः) विद्वानों के पास से (आ वृश्चन्ते) कट जाते हैं [अलग हो जाते हैं], और (पापम्) पाप के साथ (सर्वदा) सदा (जीवन्ति) जीवते हैं। (यान्) जिन को (क्रव्यात्) मांसभक्षक (अग्निः) अग्नि [समान सन्तापकारी पाप] (अन्तिकात्) निकट से (अनुवपते) काट गिराता है, (अश्व इव) जैसे घोड़ा (नडम्) नरकट घास को [कुचल डालता है] ॥५०॥

    भावार्थ

    जो पापी मनुष्य विद्वानों से पृथक् रहते हैं, वे मतिभ्रष्ट हो कर अपने को गिराते हैं ॥५०॥

    टिप्पणी

    ५०−(ते) मनुष्याः (देवेभ्यः) विद्वत्सकाशात् (आ) समन्तात् (वृश्चन्ते) वृश्च्यन्ते। छिद्यन्ते। पृथग् भवन्ति (पापम्) यथा तथा, पापेन (जीवन्ति) (सर्वदा) (क्रव्यात्) मांसभक्षकः (यान्) पुरुषान् (अग्निः) अग्निवत्सन्तापको दोषः (अन्तिकात्) समीपात् (अश्वः) (इव) (अनुवपते) निरन्तरं मुण्डयति छिनत्ति (नडम्) तृणविशेषम् ॥

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    विषय

    मांसाहार व पापमय जीवन

    पदार्थ

    १. (यान्) = जिन पुरुषों को (क्रव्याद् अग्नि:) = मांसभक्षक अग्नि-मांसभक्षण की प्रवृत्ति (अन्तिकात्) = समीप से अनुवपते उस प्रकार छिन्न करनेवाली होती है, जैसेकि (अश्व: नडम्) = एक घोड़ा तृष्णविशेष को काट डालता है। (ते) = वे मांसाहारी पुरुष (देवेभ्यः आवृश्चन्ते) = देवों से कट जाते हैं-देवों से उनका सम्बन्ध नहीं रहता-उन्हें दिव्य प्रवृत्तियाँ छोड़ जाती हैं तथा वे सर्वदा पाप (जीवन्ति) = सदा पापमय जीवनवाले हो जाते हैं।

    भावार्थ

    मांसाहार से दिव्य प्रवृत्तियों नष्ट हो जाती हैं और जीवन पापमय हो जाता है।

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    भाषार्थ

    (ते) वे (देवेभ्यः) दिव्य शक्तियों से अपने-आप को (आ वृश्चन्ते) पूर्णतया काट लेते हैं, वञ्चित कर लेते हैं, और (सर्वदा पापम्) सदा कष्टमय (जीवन्ति) जीवन व्यतीत करते हैं, (यान्) जिन्हें कि (क्रव्याद् अग्निः) मांस भक्षक अग्नि, (अन्तिकात्) समीप हो कर (अनु वपते) निरन्तर छिन्न-भिन्न कर देती है (इव) जैसे कि (अश्वः) घोड़ा (नडम्) नड को छिन्न-भिन्न कर देता है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में यक्ष्म रोग को क्रव्याद् अग्नि कहा है। यक्ष्म, रोगी के मांस को खाता रहता है, और रोगी को अन्त से श्मशानाग्नि के सुपुर्द कर देता है]

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    जो लोग (सर्वदा) सदा काल (पापम्) पापमय (जीवन्ति) जीवन विताते हैं (ते) वे (देवेभ्यः) देव, विद्वान्, सद्गुणी साधु पुरुषों से सदा के लिये (आ वृश्चन्ते) कट जाते हैं, अलग हो जाते हैं. उनको सज्जनों का संग प्राप्त नहीं होता। (अश्व इव नडम्) जिस प्रकार सूखे नड़ को घोड़ा पैरों से रोंद रोंद कर तोड़ फोड़ देता है उसी प्रकार (यान् अन्तिकात्) जिनके समीप (क्रव्यात् अग्निः) कच्चा मांस खाने वाला (अग्निः) अग्नि के समान सन्ताप-कारी निर्दय स्वभाव होता है वह उनके (नडम्) नड=नर या मानुष स्वभाव या मनुष्यता को (अनु वपते) निरन्तर नाश कर देता है।

    टिप्पणी

    ‘गन्ध अर्दने’ चुरादिः। पुरुषान गन्धयतीति पुरुषगन्धिः जनार्दनः। (प्र०) ‘ते देवेषु आ व्रश्चन्ते’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    They sever themselves from the divinities and live a continuous life of sin and deprivation whom cancerous Kravyadagni uproots at the closest, just as a wild horse tramples and wastes a slope of reeds by the lake.

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    Translation

    They fall under the wrath of the gods, they live always evilly, after whom the flesh-eating fire,.from near by, like a horse, scatters reeds.

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    Translation

    They who sever their connection from men of enlightenment and merits of from the meritorious qualities and deeds live in sin evermore. Those the Kravyad fire destroys from very near like the horse tramples down reed (do not find pleasure in life).

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    Translation

    They who sever themselves from the learned, always lead a life of sin, and misery. The vice of meat-eating, destructive like fire crushes them down from close at hand, as a horse tramples down the reeds.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५०−(ते) मनुष्याः (देवेभ्यः) विद्वत्सकाशात् (आ) समन्तात् (वृश्चन्ते) वृश्च्यन्ते। छिद्यन्ते। पृथग् भवन्ति (पापम्) यथा तथा, पापेन (जीवन्ति) (सर्वदा) (क्रव्यात्) मांसभक्षकः (यान्) पुरुषान् (अग्निः) अग्निवत्सन्तापको दोषः (अन्तिकात्) समीपात् (अश्वः) (इव) (अनुवपते) निरन्तरं मुण्डयति छिनत्ति (नडम्) तृणविशेषम् ॥

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