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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 25
    ऋषिः - भृगुः देवता - मृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    38

    यथाहा॑न्यनुपू॒र्वं भ॑वन्ति॒ यथ॒र्तव॑ ऋ॒तुभि॒र्यन्ति॑ सा॒कम्। यथा॑ न॒ पूर्व॒मप॑रो॒ जहा॑त्ये॒वा धा॑त॒रायूं॑षि कल्पयै॒षाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । अहा॑नि । अ॒नु॒ऽपू॒र्वम् । भव॑न्ति । यथा॑ । ऋ॒तव॑: । ऋ॒तुऽभि॑: । यन्ति॑ । सा॒कम् । यथा॑ । न । पूर्व॑म् । अप॑र: । जहा॑ति । ए॒व । धा॒त॒: । आयूं॑षि । क॒ल्प॒य॒ । ए॒षाम् ॥२.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथाहान्यनुपूर्वं भवन्ति यथर्तव ऋतुभिर्यन्ति साकम्। यथा न पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूंषि कल्पयैषाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । अहानि । अनुऽपूर्वम् । भवन्ति । यथा । ऋतव: । ऋतुऽभि: । यन्ति । साकम् । यथा । न । पूर्वम् । अपर: । जहाति । एव । धात: । आयूंषि । कल्पय । एषाम् ॥२.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 25
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जैसे (अहानि) दिन (अनुपूर्वम्) एक के पीछे एक (भवन्ति) होते रहते हैं, (यथा) जैसे (ऋतवः) ऋतुएँ (ऋतुभिः साकम्) ऋतुओं के साथ (यन्ति) चलते हैं। [वैसे ही] (यथा) जिस कारण से (अपरः) पिछला [पुत्र आदि] (पूर्वम्) पहिले [पिता आदि] को (न)(जहाति) छोड़े, (एव) उसी कारण से, (धातः) हे विधाता ! [परमेश्वर] (एषाम्) इन के (आयूंषि) जीवनों को (कल्पय) समर्थ कर ॥२५॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य आदि पदार्थ ईश्वरनियम से परिपक्व होकर दिन-राति आदि को यथानियम बनाते हैं, वैसे ही जो मनुष्य ब्रह्मचर्य आदि नियमों का यथावत् पालन करते हैं, उन के पुत्र-पौत्र आदि पूर्ण आयु भोगते हुए अपने पूर्वजों की सेवा करते रहते हैं ॥२५॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१८।५ ॥

    टिप्पणी

    २५−(यथा) येन प्रकारेण (अहानि) दिनानि (अनुपूर्वम्) यथाक्रमम्। पूर्वमनुक्रमेण (भवन्ति) वर्तन्ते (यथा) (ऋतवः) वसन्तादयः (ऋतुभिः) (यन्ति) गच्छन्ति (साकम्) सह (यथा) येन कारणेन (न) निषेधे (पूर्वम्) पूर्वकालीनं जनकादिकम् (अपरः) अर्वाक्कालीनः पुत्रादिः (जहाति) त्यजति (एव) तेन कारणेन (धातः) हे विधातः परमेश्वर (आयूंषि) जीवनानि (कल्पय) समर्थय (एषाम्) प्राणिनाम् ॥

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    विषय

    अविच्छिन्न पूर्ण जीवन

    पदार्थ

    १. (यथा) = जिस प्रकार (अहानि) = दिन (अनुपूर्व भवन्ति) = अनुक्रम से आते रहते हैं-एक दिन के बाद दूसरा दिन आ जाता है और उससे लगा हुआ तीसरा दिन और इस प्रकार यह दिनों का क्रम चलता है, (धात:) = हे सबका धारण करनेवाले प्रभो! (एवा) = इसी प्रकार (एषाम्) = इन तपस्वी [भृगु] पुरुषों के (आयूंषि कल्पय) = जीवनों को बनाइए। (यथा) = जैसे (ऋतव:) = ऋतुएँ (ऋतुभिः साकं यन्ति) = ऋतुओं के साथ गतिवाली होती है, जैसे इन ऋतुओं का क्रम अविच्छिन्नरूप से चलता जाता है, इसीप्रकार इन भृगुओं के जीवन में भी ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास' का क्रम अविच्छिन्न रूप से पूर्ण हो। ३. (यथा) = जैसे (पूर्वम्) = पूर्वकाल में उत्पन्न हुए-हुए पिता को (अपर: न जहाति) = अर्वाक् काल में होनेवाला सन्तान नहीं छोड़ता है, अर्थात् पिता से पूर्व ही जीवन को समास करके चला नहीं जाता, इस प्रकार हे प्रभो! इन स्वभक्तों के जीवनों को भी बनाइए। कोई भी व्यक्ति शत वर्ष से पूर्व ही जानेवाला न हो जाए।

    भावार्थ

    प्रभु-कृपा से हमारी जीवन-यात्रा मध्य में ही विच्छिन्न न हो जाए। पुत्र पिता से पूर्व कभी न चला जाए।

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    भाषार्थ

    (यथा) जैसे (अहानि) दिन और रात (अनुपूर्वम्) एक के पीछे दूसरा, (भवन्ति) होते रहते हैं, (यथा) जैसे (ऋतवः) ऋतुएँ (ऋतुभिः साकम्) अन्य ऋतुओं के साथ, एक के पीछे दूसरी (यन्ति) चलती है, (यथा) जैसे (पूर्वम्) पूर्व के दिन को या पूर्व की ऋतु को (अपरः) अगला दिन या अगली ऋतु (न जहाति) नहीं छोड़ती, (एवा) इसी प्रकार (धातः) हे विधाता ! (एषाम्) इन प्रजाजनों की (आयूंषि) आयुओं को (कल्पय) तू संयोजित कर, या सामर्थ्ययुक्त कर।

    टिप्पणी

    [अहानि = "अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च" (ऋ० ६।९।१) में अहः को कृष्ण और अर्जुन अर्थात् शुक्ल कहा है। इसलिये अहः का अर्थ रात्रि भी है और दिन भी]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यथा) जिस प्रकार (अहानि) दिन (अनुपूर्वम्) एक दूसरे के बाद, क्रम से बराबर (भवन्ति) हुआ करते हैं और (यथा) जिस प्रकार (ऋतवः) ऋतुएं (ऋतुभिः साकम्) ऋतुओं के साथ, एक दूसरे के पीछे बराबर जुड़ी जुड़ी (यन्ति) आया और जाया करती हैं। और (यथा) जिस प्रकार (पूर्वम्) अपने से पहले को (अपरः) आगे आनेवाला दूसरा नवयुवक सन्तान (न जहाति) नहीं त्यागता प्रत्युत उसके साथ जुड़ा रहता है। (एवा) इसी प्रकार हे (धातः) सब के धारक पोषक परमेश्वर ! आप (एषाम्) इन जीवों के (आयूंषि) जीवनों की (कल्पय) व्यवस्था करते हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    As day-nights follow one after the other, as seasons move on in cycle one in link with the other, so may the successor among you follow and not forsake the predecessor, and thus may the Lord Ordainer and sustainer of life order and guide the life of all these people on earth.

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    Translation

    As days take place one after another, as seasons go along with seasons, as an after one does not desert a preceding - so O creator, arrange their life-times.

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    Translation

    As days pass one after another as the seasons united with each other come and go, as the latter does not leave former in the same way manage the lives of these men, My Lord.

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    Translation

    As the days follow days in close succession, and the seasons duly come with the seasons, as the son dies not before the father, so constitute the lives of these, O God!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २५−(यथा) येन प्रकारेण (अहानि) दिनानि (अनुपूर्वम्) यथाक्रमम्। पूर्वमनुक्रमेण (भवन्ति) वर्तन्ते (यथा) (ऋतवः) वसन्तादयः (ऋतुभिः) (यन्ति) गच्छन्ति (साकम्) सह (यथा) येन कारणेन (न) निषेधे (पूर्वम्) पूर्वकालीनं जनकादिकम् (अपरः) अर्वाक्कालीनः पुत्रादिः (जहाति) त्यजति (एव) तेन कारणेन (धातः) हे विधातः परमेश्वर (आयूंषि) जीवनानि (कल्पय) समर्थय (एषाम्) प्राणिनाम् ॥

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