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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 37
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - पुरस्ताद्बृहती सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    53

    अ॑यज्ञि॒यो ह॒तव॑र्चा भवति॒ नैने॑न ह॒विरत्त॑वे। छि॒नत्ति॑ कृ॒ष्या गोर्धना॒द्यं क्र॒व्याद॑नु॒वर्त॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒य॒ज्ञि॒य: । ह॒तऽव॑र्चा: । भ॒व॒ति॒ । न । ए॒ने॒न॒ । ह॒वि: । अत्त॑वे । छि॒नत्ति॑ । कृ॒ष्या: । गो: । धना॑त् । यम् । क॒व्य॒ऽअत् । अ॒नु॒ऽवर्त॑ते ॥२.३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयज्ञियो हतवर्चा भवति नैनेन हविरत्तवे। छिनत्ति कृष्या गोर्धनाद्यं क्रव्यादनुवर्तते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयज्ञिय: । हतऽवर्चा: । भवति । न । एनेन । हवि: । अत्तवे । छिनत्ति । कृष्या: । गो: । धनात् । यम् । कव्यऽअत् । अनुऽवर्तते ॥२.३७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 37
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    वह पुरुष (अयज्ञियः) संगति के अयोग्य, (हतवर्चाः) नष्ट तेजवाला (भवति) हो जाता है, (एनेन) इस कारण से [उसे] (हविः) ग्राह्य अन्न (अत्तवे) खाना (न) नहीं [होता] [उस को] (क्रव्यात्) मांसभक्षक [दोष वा रोग] (कृष्याः) खेती से, (गोः) गौ से और (धनात्) धन से (छिनत्ति) काट देता है, वह [मांसभक्षक] (यम् अनुवर्तते) जिस पुरुष के पीछे पड़ जाता है ॥३७॥

    भावार्थ

    खोटे कुकर्मी मनुष्य से न कोई मिलता है और न वह अन्न आदि पदार्थ पा सकता है, तब वह दुराचारी महादुःखी होता है ॥३७॥

    टिप्पणी

    ३७−(अयज्ञियः) असंगतियोग्यः (हतवर्चाः) नष्टतेजाः (भवति) (नः) निषेधे (एनेन) अनेन कारणेन (हविः) ग्राह्यमन्नम् (अत्तवे) खादितुम् (छिनत्ति) कृन्तति तमिति शेषः (कृष्याः) कृषिकर्मसकाशात् (गोः) धेनुसकाशात् (धनात्) (यम्) पुरुषम् (क्रव्यात्) मांसभक्षको दोषः, (अनुवर्तते) अनुगच्छति ॥

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    विषय

    अयज्ञियः, हतवर्चा:

    पदार्थ

    १. (क्रव्यात् यं अनुवर्तते) = मांसभक्षक अग्नि जिसका अनुवर्तन करती है, अर्थात् जो मांसभक्षण की प्रवृत्तिवाला बनता है, वह (अयज्ञियः भवति) = यज्ञों की प्रवृत्तिवाला नहीं रहता श्रेष्ठ कर्मों से दूर होकर क्रूर कर्मों को करने में प्रवृत्त हो जाता है। विलास में पड़ा हुआ यह मनुष्य (हतवर्चा:) = नष्ट तेजवाला होता है। (एनेन हवि: अत्तवे न) = इससे दानपूर्वक अदन [हवि] नहीं किया जाता-यह सारे-का-सारा खाने की करता है-अपने ही मुंह में आहुति देनेवाला असुर बन जाता है। २. यह क्रव्याद् अग्नि इस मांसाहारी को (कृष्याः धनात् छिनत्ति) = कृषि से उत्पन्न धन से पृथक्क र देती है। (गोः) [धनात्] = गौवों के पालन से प्राप्त धन से पृथक्क कर देती है। यह कृषि व गो-पालन आदि से दूर होकर सट्टे आदि में प्रवृत्त हो जाता है। अपने विलासमय जीवन के लिए एक रात में ही धनी बनने के स्वप्न देखा करता है।

    भावार्थ

    मांसाहारी 'अयज्ञिय व हतवर्चा' हो जाता है। यह असुर बन जाता है। इसे कृषि व गोपालन के स्थान में सट्टे का व्यापार प्रिय हो जाता है।

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    भाषार्थ

    (यम्, क्रव्याद्, अनुवर्तते) क्रव्याद् अग्नि जिस का पीछा करती है वह (अयज्ञियः) यज्ञ करने योग्य नहीं रहता, (हतवर्चा, भवति) और कान्तिरहित हो जाता है, (एनेन) इस द्वारा (हविः) अन्न (न अत्तवे) नहीं खाया जाता। वह (कृष्याः, गोः, धनात्) कृषि कर्म से, गौओं और धन से (छिनत्ति) अपने आप को काट लेता है, वञ्चित कर लेता है।

    टिप्पणी

    [जिसे यक्ष्म रोग हुआ मानो शवाग्नि उस का पीछा कर रही है। वह न यज्ञ करने में शक्त होता, न खा-पी सकता, कान्ति से रहित हो जाता, और सम्पत्ति से भी वञ्चित हो जाता है]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यं) जिसके पीछे (क्रव्यात्) कच्चा मांस खाने वाला शवाग्नि, शोक रूप में (अनुवर्तते) बाघ के समान लग जाता है वह पुरुष (अयज्ञियः) यज्ञ के अयोग्य और (हतवर्चाः) निस्तेज (भवति) हो जाता है (एनेन) इसके हाथ से (हविः) यज्ञ का हवि (न अत्तवे) खाने योग्य नहीं रहता। वह (कृष्याः) खेती बाड़ी, (गौः) गौ आदि पशुओं और (धनात्) धन सम्पत्ति से भी (छिनत्ति) वन्चित हो जाता है, उनको वह खो बैठता है। फलतः मृतकों का दाह भली प्रकार करके पुनः शुद्ध होकर घर में प्रवेश करना चाहिये।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘ये अग्नयो’ (तृ०) ‘कुष्टिं गां धनम्’ इति पैप्प० सं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    Whoever the mortal man whom cancerous Kravyadagni pursues, he is unable to perform any yajna, he loses the lustre of life, even food is not for him to eat. In fact, he is deprived of all, his farm, his cows, his entire wealth in the end, unless he dispels the carnivorous cause from his life and home.

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    Translation

    He becomes unfit for sacrifice, of smitten splendor; not by him is the oblation to be eaten; (him) the flesh-eating one cuts off from plowing, kine, riches, whom it pursues.

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    Translation

    He whom this Kravyad fire (the fever or other disease) pursues becomes impious, is deprived of all splendor of life. The food given by him is not to be eaten (due to fear of developing disease). He deprives of agricultural yields and cow.

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    Translation

    A man addicted to the vice of meat-eating becomes unholy, splendour rift. His sacrifice is unfit to eat. He is deprived of tilth, of cows, of riches.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३७−(अयज्ञियः) असंगतियोग्यः (हतवर्चाः) नष्टतेजाः (भवति) (नः) निषेधे (एनेन) अनेन कारणेन (हविः) ग्राह्यमन्नम् (अत्तवे) खादितुम् (छिनत्ति) कृन्तति तमिति शेषः (कृष्याः) कृषिकर्मसकाशात् (गोः) धेनुसकाशात् (धनात्) (यम्) पुरुषम् (क्रव्यात्) मांसभक्षको दोषः, (अनुवर्तते) अनुगच्छति ॥

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