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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 15
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    70

    यो नो॒ अश्वे॑षु वी॒रेषु॒ यो नो॒ गोष्व॑जा॒विषु॑। क्र॒व्यादं॒ निर्णु॑दामसि॒ यो अ॒ग्निर्ज॑न॒योप॑नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । न॒: । अश्वे॑षु । वी॒रेषु॑ । य: । न॒: । गोषु॑ । अ॒ज॒ऽअ॒विषु॑ । क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । नि: । नु॒दा॒म॒सि॒ । य: । अ॒ग्नि: । ज॒न॒ऽयोप॑न: ॥२.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो नो अश्वेषु वीरेषु यो नो गोष्वजाविषु। क्रव्यादं निर्णुदामसि यो अग्निर्जनयोपनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । न: । अश्वेषु । वीरेषु । य: । न: । गोषु । अजऽअविषु । क्रव्यऽअदम् । नि: । नुदामसि । य: । अग्नि: । जनऽयोपन: ॥२.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो [दुष्ट] (नः) हमारे (अश्वेषु) घोड़ों में और (वीरेषु) वीरों में, (यः) जो (नः) हमारी (गोषु) गौओं में और (अजाविषु) भेड़-बकरियों में और (यः) जो (अग्निः) अग्नि [समान सन्तापकारी दुष्ट] (जनयोपनः) मनुष्यों को व्याकुल करनेवाला है, [उस] (क्रव्यादम्) मांसभक्षक [पिशाच] को (निः नुदामसि) हम निकाले देते हैं ॥१५॥

    भावार्थ

    सब धर्मात्मा लोग मिलकर परस्पर सुखवृद्धि के लिये दुराचारी दुःखदायी पुरुष को निकाल देवें ॥१५॥

    टिप्पणी

    १५−(यः) दुष्टः (नः) अस्माकम् (अश्वेषु) (वीरेषु) (यः) (नः) (गोषु) धेनुषु (अजाविषु) अजेषु छागेषु अविषु मेषेषु च (क्रव्यादम्) मांसभक्षकम् (निर्णुदामसि) निर्गमयामः (यः) (अग्निः) अग्निवत्सन्तापकः (जनयोपनः) जनानां विमोहकः ॥

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    विषय

    'जनयोपन' अग्नि को दूर करना

    पदार्थ

    १. (य:) = जो भी (न:) = हमारे (अश्वेषु) = अश्वों के विषय में, (वीरेषु) = वीर सन्तानों के विषय में और (य:) = जो (न:) = हमारी (गोषु) = गौवों में, (अजाविषु) = बकरियों व भेड़ों में पीड़ा पहुँचानेवाला मांसभक्षी पुरुष है उस (क्रव्यादम्) = मांसाहारी को (निर्गुदामसि) = सुदूर धकेल देते हैं। २. (यः) = जो भी (अग्निः) = अग्नि की भाँति सन्ताप पहुँचानेवाला व्यक्ति (जनयोपन:) = लोगों को विमूढ़ बनानेवाला है-उसको हम दूर करते हैं।

    भावार्थ

    जो भी मांसाहारी सन्तापक पुरुष घोड़ों, गौवों, भेड़-बकरियों व वीरों को पीड़ित करता है, उसका दूर करना आवश्यक है।

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    भाषार्थ

    (यः) जो अग्नि, अर्थात् अग्नि के समान नाशक यक्ष्मरोग, (नः) हमारे (अश्वेषु) अश्वों में, (वीरेषु) और वीर योद्धाओं में है, (यः) जो (नः) हमारी (गोषु अजाविषु) गौओं-बकरियों-भेड़ो में है, तथा (यः अग्निः) अग्नि सदृश यक्ष्मरोग (जनयोपनः) जनों को व्याकुल कर देता है उस (क्रव्यादम्) कच्चे अर्थात् जीवित के मांस के भक्षी यक्ष्म को (निर्णुदामसि) हम निकाल फेंकते हैं।

    टिप्पणी

    [अग्नि शब्द द्वारा यक्ष्मरोग अभिप्रेत है। उसे ही क्रव्याद् भी कहा है। योपनः= युप विमोहने। विमोहन= मूढ़ता, कर्तव्याकर्तव्यज्ञान शून्यता, अर्थात् व्याकुलता। मन्त्र में पशुचिकित्सा का भी निर्देश किया है]।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यः) जो (नः) हमारे (अश्वेषु) घोड़ों में (वीरेषु) पुत्रों और वीर सैनिकों में और (यः नः) जो हमारे (गोषु अजाविषु) गौओं और बकरियों और भेड़ों में (जनयोपनः) जन्तुओं का नाशक (अग्निः) अग्नि के समान तापकारी जन्तु या रोग है उस (क्रव्यादम्) क्रव्याद्, कच्चा मांस खाने वाले को सदा हम (निर् नुदामसि) दूर करें।

    टिप्पणी

    ‘यो नोश्वेषु’, (द्वि०) ‘यो गोषु योऽजाविषु’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    Whatever cancerous ailment there may be in our horses and in brave youth and warriors, whatever in our cows, sheep and goats, we throw out that flesh eating consumptive fire energy of evil and negativity which vexes humanity.

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    Translation

    The flesh-eating one that is in our horses, heroes, that is in our kine, goats and sheep, do we thrust out - the fire that obstructs the people.

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    Translation

    We, (for safety of our side) expel the Kravvad fire which creates trouble and which has got place in our horses, in our men, in our cows, in our goats and in our sheep.

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    Translation

    We expel the raw flesh-eating disease that troubles men, and is present in our horses, in our heroes, cows, goats and sheep.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(यः) दुष्टः (नः) अस्माकम् (अश्वेषु) (वीरेषु) (यः) (नः) (गोषु) धेनुषु (अजाविषु) अजेषु छागेषु अविषु मेषेषु च (क्रव्यादम्) मांसभक्षकम् (निर्णुदामसि) निर्गमयामः (यः) (अग्निः) अग्निवत्सन्तापकः (जनयोपनः) जनानां विमोहकः ॥

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