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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 24
    ऋषिः - भृगुः देवता - मृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
    46

    आ रो॑ह॒तायु॑र्ज॒रसं॑ वृणा॒ना अ॑नुपू॒र्वं यत॑माना॒ यति॒ स्थ। तान्व॒स्त्वष्टा॑ सु॒जनि॑मा स॒जोषाः॒ सर्व॒मायु॑र्नयतु॒ जीव॑नाय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । रो॒ह॒त॒ । आयु॑: । ज॒रस॑म् । वृ॒णा॒ना: । अ॒नु॒ऽपू॒र्वम् । यत॑माना: । यति॑ । स्थ । तान् । व॒: । त्वष्टा॑ । सु॒ऽजनि॑मा । स॒ऽजोषा॑: । सर्व॑म् । आयु॑: । न॒य॒तु॒ । जीव॑नाय ॥२.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ रोहतायुर्जरसं वृणाना अनुपूर्वं यतमाना यति स्थ। तान्वस्त्वष्टा सुजनिमा सजोषाः सर्वमायुर्नयतु जीवनाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । रोहत । आयु: । जरसम् । वृणाना: । अनुऽपूर्वम् । यतमाना: । यति । स्थ । तान् । व: । त्वष्टा । सुऽजनिमा । सऽजोषा: । सर्वम् । आयु: । नयतु । जीवनाय ॥२.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 24
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्यो !] (यति स्थ) जितने तुम हो, [वे तुम] (अनुपूर्वम्) लगातार (यतमानाः) यत्न करते हुए, (जरसम्) स्तुतियुक्त (आयुः) जीवन (वृणानाः) चाहते हुए (आ रोहत) ऊँचे चढ़ो। (सुजनिमा) सुन्दर जन्म देनेवाला (सजोषाः) समान प्रीतिवाला (त्वष्टा) कर्ता [परमेश्वर] (तान् वः) उन तुम को (सर्वम् आयुः) पूर्ण आयु (जीवनाय) उत्तम जीवन के लिये (नयतु) प्राप्त करावे ॥२४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य निरन्तर उपाय करके परोपकार से संसार में कीर्ति बढ़ाते हैं, वे शूर परमात्मा के नियम से उच्च पद पाते जाते हैं ॥२४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है १०।१८।६ ॥

    टिप्पणी

    २४−(आ रोहत) अधितिष्ठत (आयुः) जीवनम् (जरसम्) अ० १।३०।३। जॄ स्तुतौ−असुन्, जरस्−अर्शआद्यच्। जरया स्तुत्या युक्तम्। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः−निरु० १०।८। (वृणानाः) संभजमानाः (अनुपूर्वम्) यथाक्रमम् (यतमानाः) प्रयत्नं कुर्वन्तः (यति) यत्−छान्दसो डतिः। यत्संख्याकाः। यावन्तः (स्थ) भवथ (तान्) तादृशान् (वः) युष्मान् (त्वष्टा) कर्ता परमेश्वरः (सुजनिमा) जनिमृङ्भ्यामिमनिन्। उ० ४।१४९। जन जनने प्रादुर्भावे च−इमनिन्। शोभनानि कीर्तनस्मरणादिना सुखहेतुभूतानि जनिमानि जन्मानि यस्मात् तादृशः (सजोषाः) समानप्रीतिः (सर्वम्) सम्पूर्णम् (आयुः) जीवनम् (नयतु) प्रापयतु (जीवनाय) उत्तमजीवनप्राप्तये ॥

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    विषय

    अनुपूर्व यतमाना:

    पदार्थ

    १. (यति स्थ) = इस घर में जितने भी आप सब हों वे (अनपूर्वं यतमाना:) = क्रमश: गृह की स्थिति को उत्तम बनाने के लिए प्रयत्न करते हुए (आयुः आरोहत) = जीवन में आगे और आगे बढ़ो। (जरसं वृणाना:) = आप जरावस्था का वरण करनेवाले बनो। यौवन में ही आपका जीवन समास न हो जाए। पिता के बाद पुत्र आता है। पिता ने जैसे घर को अच्छा बनाने का यत्न किया था, उसी प्रकार पुत्र गृहस्थिति को और अधिक उन्नत करने के लिए यत्नशील होता है। इस प्रकार अनुपूर्व यत्न करते हुए सब पूर्ण जरावस्था तक जीनेवाले बनते हैं। पुत्र कभी पिता से पहले चला नहीं जाता। २. (तान् व:) = उन गृह में रहनेवाले आप सबको (त्वष्टा) = संसार का निर्माता प्रभु (सुजनिमा) = उत्तम जन्मों को देनेवाला व (सजोषा:) = सदा हृदयों में हमारे साथ प्रीतिपूर्वक स्थित होनेवाला (जीवनाय) = उत्कृष्ट दीर्घजीवन के लिए (सर्वम् आयुः जयतु) = पूर्ण जीवन को प्राप्त कराए।

    भावार्थ

    हम अपने घरों में सदा उत्तम स्थिति के लिए प्रयत्न करते हुए, आगे बढ़ें। प्रभु से संगत हुए-हुए जीवन को उत्तम बनाएँ।

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    भाषार्थ

    (यति स्थ) जितने तुम हो, (अनुपूर्वम्) एक के पीछे दूसरा,- इस प्रकार (यतमानाः) प्रयत्न करते हुए, (जरसम् वृणानाः) और जरावस्था को प्राप्त हो कर, (आयुः) आायु के शिखर तक (आरोहत) आरोहण करो, चढ़ो ! (सुजनिमा) उत्तम मनुष्य-जीवन देना वाला तथा (सजोषाः) प्रीति करने वाला (त्वष्टा) जगत् का कारीगर परमेश्वर, (तान् वः) उन तुम को, (जीवनाय) जीवित रहने के लिये, (सर्वम् आयुः) पूर्ण आयु तक (नयतु) ले चले या पहुंचाए।

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    विषय

    क्रव्यात् अग्नि का वर्णन, दुष्टों का दमन और राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोग (जरसम्) जरा, वृद्धावस्था को (वृणानाः) दूर करते हुए (आयुः) दीर्घ जीवन (आरोहत) प्राप्त करें। और (अनुपूर्वम्) पहले के समान नियमपूर्वक (यतमानाः) यत्न करते हुए (यति) संयम या ब्रह्मचर्य के जीवन में (स्थ) रहो। (त्वष्टा) तुम्हारा उत्पादक परमात्मा (सजोषाः) आप लोगों के साथ प्रेम का व्यवहार करने हारा (सुजनिमा) उत्तम रूप से उत्पन्न होने वाले सुजात (तान् वः) उन आप साधनासम्पन्न पुरुषों को (जीवनाय) जीवन के लिये (सर्वम्) समस्त पूर्ण (आयुः) जीवन (नयतु) प्राप्त करावे।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘यतिष्ठ’ (तृ० च०) ‘इह त्वष्टा सुजनिमा सजोषा दीर्घमायुः करति जीवसे वः’ इति ऋ०। ‘जरसं गृणानाः’, (तृ०) ‘तानवस्त्वा सुजनिमा सुरत्नाः’ (च०) ‘करतु जीवनाय’ इति तै० आ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निरुत मन्त्रोक्ता देवताः, २१—३३ मृत्युर्देवता। २, ५, १२, २०, ३४-३६, ३८-४१, ४३, ५१, ५४ अनुष्टुभः [ १६ ककुम्मती परावृहती अनुष्टुप्, १८ निचृद् अनुष्टुप् ४० पुरस्तात् ककुम्मती ], ३ आस्तारपंक्ति:, ६ भुरिग् आर्षी पंक्तिः, ७, ४५ जगती, ८, ४८, ४९ भुरिग्, अनुष्टुब्गर्भा विपरीत पादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पुरस्ताद बृहती, ४२ त्रिपदा एकावसाना आर्ची गायत्री, ४४ एकावताना द्विपदा आर्ची बृहती, ४६ एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्, ४७ पञ्चपदा बार्हतवैराजगर्भा जगती, ५० उपरिष्टाद विराड् बृहती, ५२ पुरस्ताद् विराडबृहती, ५५ बृहतीगर्भा विराट्, १, ४, १०, ११, २९, ३३, ५३, त्रिष्टुभः। पञ्चपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yakshma Nashanam

    Meaning

    Come, take on to life enthusiastically, and go forward rising to the heights of life at the full, striving in order one after another till you reach the destination, as many as you are. And may Tvashta, lord maker of life, loving and friendly, lead you to fulfilment as you choose to live your life at the full.

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    Translation

    Mount, choosing old age for life-time, pressing on, one after another, as many as ye bé; you here let Tvastr, him of good births, in accord, lead on to living your whole life-time.

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    Translation

    O Jivas, You all accepting smileness live full lives, all of you striving one after another continue your effort. May Gracious God, the creator of all good things lead you live your lives to full existence.

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    Translation

    O men, keeping old age far away, attain to full life. Striving regularly remain celibate in life. May God, your Friend, grant you a decent birth, and full age for existence!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(आ रोहत) अधितिष्ठत (आयुः) जीवनम् (जरसम्) अ० १।३०।३। जॄ स्तुतौ−असुन्, जरस्−अर्शआद्यच्। जरया स्तुत्या युक्तम्। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः−निरु० १०।८। (वृणानाः) संभजमानाः (अनुपूर्वम्) यथाक्रमम् (यतमानाः) प्रयत्नं कुर्वन्तः (यति) यत्−छान्दसो डतिः। यत्संख्याकाः। यावन्तः (स्थ) भवथ (तान्) तादृशान् (वः) युष्मान् (त्वष्टा) कर्ता परमेश्वरः (सुजनिमा) जनिमृङ्भ्यामिमनिन्। उ० ४।१४९। जन जनने प्रादुर्भावे च−इमनिन्। शोभनानि कीर्तनस्मरणादिना सुखहेतुभूतानि जनिमानि जन्मानि यस्मात् तादृशः (सजोषाः) समानप्रीतिः (सर्वम्) सम्पूर्णम् (आयुः) जीवनम् (नयतु) प्रापयतु (जीवनाय) उत्तमजीवनप्राप्तये ॥

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