अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 6/ मन्त्र 19
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आर्ची उष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
सोऽना॑वृत्तां॒दिश॒मनु॒ व्यचल॒त्ततो॒ नाव॒र्त्स्यन्न॑मन्यत ॥
स्वर सहित पद पाठस: । अना॑वृत्ताम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि । अ॒च॒ल॒त् । तत॑: । न । आ॒ऽव॒र्त्स्यन् । अ॒म॒न्य॒त॒ ॥६.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
सोऽनावृत्तांदिशमनु व्यचलत्ततो नावर्त्स्यन्नमन्यत ॥
स्वर रहित पद पाठस: । अनावृत्ताम् । दिशम् । अनु । वि । अचलत् । तत: । न । आऽवर्त्स्यन् । अमन्यत ॥६.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 19
भाषार्थ -
(सः) वह व्रात्य-संन्यासी, (अनावृत्ताम्) जो लौटती नहीं अर्थात् अनावर्तन, अनावृत्ति की (दिशम्) दिशा अर्थात् उद्देश्य को (अनु) लक्ष्य करके (व्यचलत्) विशेषतया चला; (ततः) उस दिशा या उद्देश्य से (न, आवस्यन्) वह न लौटेगा यह (अमन्यत)१ उस ने माना, या विचार किया।
टिप्पणी -
[अनावृत्ताम्= यह मोक्ष की दिशा या उद्देश्य है। मोक्ष प्राप्त कर के मुक्तात्मा चिरकाल तक मोक्ष सुख भोगते रहते हैं, और चिरकाल तक संसारी जीवात्माओं की तरह पुनः पुनः जन्म-मृत्यु के शिकार नहीं होते। "अनावृत्तादिश्" का वर्णन "न च पुनरावर्तते, न च पुनरावर्तते" (छा० उप० ८।१५।१), तथा "अनावृत्ति शब्दादनावृत्ति-शब्दात्" (वेदान्त ४।४।२२) द्वारा भी हुआ है। इन प्रमाणों में भी किसी नियत काल तक सीमित-मुक्ति से पूर्व, पुनरावर्तन का निषेध है, पुनरावर्तन का सर्वदा निषेध नहीं। इस सम्बन्ध में सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास ९ का मुक्ति प्रकरण विशेषतया द्रष्टव्य है।] [१. अमन्यत= मन्त्र में यह नहीं कहा गया कि वह"आवर्तन" नहीं करेगा, अपितु यह कहा गया है कि "उस ने माना कि वह आवर्तन अर्थात् लौटेगा नहीं। क्या इस द्वारा यह ध्वनित नहीं होता कि यह व्रात्य का ही मानना है, परन्तु वस्तुतः यह वात ऐसी नहीं है, अर्थात् नियत काल के मोक्ष के पश्चात् तो लौटना होता ही है।]