अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - साम्नी त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तमृ॒तं च॑ स॒त्यंच॒ सूर्य॑श्च च॒न्द्रश्च॒ नक्ष॑त्राणि चानु॒व्यचलन् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ऋ॒तम् । च॒ । स॒त्यम् । च॒ । सूर्य॑: । च॒ । च॒न्द्र: । च॒ । नक्ष॑त्राणि । च॒ । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलन् । ॥६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
तमृतं च सत्यंच सूर्यश्च चन्द्रश्च नक्षत्राणि चानुव्यचलन् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । ऋतम् । च । सत्यम् । च । सूर्य: । च । चन्द्र: । च । नक्षत्राणि । च । अनुऽव्यचलन् । ॥६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(तम्, अनु) उस व्रात्य-संन्यासी के अनुकूल या साथ साथ (ऋतम्, च) जीवन में नियम व्यवस्था (सत्यम्, च) और सच्चाई; (सूर्यः, च) तथा सूर्य (चन्द्रः, च) और चांद (नक्षत्राणि, च) और नक्षत्र भी (अनु व्यचलन्) मानो अनुचर बन कर चले।
टिप्पणी -
[आत्मानात्यविवेकी, व्रती तथा सर्वहितकारी संन्यासी जहां जहां भी जाता है, नियम व्यवस्था और सच्चाई भी मानो उस के साथ चलती हैं, तथा प्राकृतिक शक्तियां भी मानो अनुचरी बन कर उस की सहायता करने लगती हैं। प्राकृतिक शक्तियों के सम्बन्ध में निम्नलिखित सूत्र विशेष प्रकाश डालता है। यथा "सत्त्व पुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च" (योग ३।४९), अर्थात् “चित्त और पुरुष (जीवात्मा) का भेद जानने वाले को, सब भावपदार्थों पर, स्वामित्व अर्थात् अधिकार और सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है"। सर्वज्ञ होने के कारण वह प्राकृतिक शक्तियों का प्रयोग ज्ञानपूर्वक करता, और उन से यथोचित सहायता प्राप्त कर सकता है। मन्त्र १-३ के अनुसार व्रात्य-संन्यासी ने राजप्रजावर्ग को भूमिज सम्पत्तियों के उपार्जन का सदुपदेश दिया, और मंत्र ४-६ के अनुसार जीवनों में नियम व्यवस्था तथा सच्चाई का उपदेश दिया, तथा प्राकृतिक शक्तियों को स्वानुकूल बना लेने की ओर राजप्रजावर्ग का ध्यान आकृष्ट किया]