अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आर्ची पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तंभूमि॑श्चा॒ग्निश्चौष॑धयश्च॒ वन॒स्पत॑यश्च वानस्प॒त्याश्च॑वी॒रुध॑श्चानु॒व्यचलन् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । भूमि॑: । च॒ । अ॒ग्नि: । च॒ । ओष॑धय: । च॒ । वन॒स्पत॑य: । च॒ । वा॒न॒स्प॒त्या: । च॒ । वी॒रुध॑: । च॒ । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलन् ॥६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तंभूमिश्चाग्निश्चौषधयश्च वनस्पतयश्च वानस्पत्याश्चवीरुधश्चानुव्यचलन् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । भूमि: । च । अग्नि: । च । ओषधय: । च । वनस्पतय: । च । वानस्पत्या: । च । वीरुध: । च । अनुऽव्यचलन् ॥६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(तम्) उस के [प्रयत्नों के] (अनु) अनुकूल, (भूमिः च, अग्निः च) उत्पादन स्थान भूमि और पाककारी अग्नि, (ओषधयः च, वनस्पतयः च) ओषधियां और वनस्पतियां, (वानस्पत्याः१ च, वीरुधः च) वनस्पतियों के फल और बेलें (व्यचलन्) चलीं।
टिप्पणी -
[प्रजाहितकारी संन्यासी ने प्रजा के आवश्यक साधनों के उत्पादक के लिए जब प्रयत्न किया, तब राज-प्रजावर्ग ने, भूमि से खाद्य-भोज्य, तथा रोगोपचार के लिए ओषधि आदि पदार्थों को प्रभूत मात्रा में उत्पन्न किया, तथा पाकक्रिया के लिए अग्न्युत्पादक काष्ठादि साधनों की भी व्यवस्था की। औषधि आदि और भूमि तथा अग्नि के सम्बन्ध में, "व्यचलन्" का प्रयोग काव्य दृष्टि से है। वेद महाकवि परमेश्वर की काव्यमय रचनाएं हैं।] [१. "वानस्पत्यः फलै पुष्पात्, तैरपुष्पाद् वनस्पतिः" मन्त्र में इन पदों का प्रयोग, इन द्वारा प्राप्त फल आदि के निमित्त है।]