अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आसुरी पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स ऊ॒र्ध्वांदिश॒मनु॒ व्यचलत् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । ऊ॒र्ध्वाम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि । अ॒च॒ल॒त् ॥६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
स ऊर्ध्वांदिशमनु व्यचलत् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । ऊर्ध्वाम् । दिशम् । अनु । वि । अचलत् ॥६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(सः) वह व्रात्य-संन्यासी, (ऊर्ध्वाम्)१ भूमि से उत्पन्न पदार्थों से ऊंचे (दिशम्) उद्देश्य को (अनु) लक्ष्य कर के, (व्यचलत्) विशेषतया चला, प्रयत्नवान् हुआ।
टिप्पणी -
[ऊर्ध्वाम्= इस शब्द का अर्थ केवल दैशिक-ऊंचाई ही नहीं मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक ऊंचाई के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता है। "त्रिपार्द्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः" (यजु० ३१।४) में महर्षि दयानन्द ने "ऊर्ध्वः" का अर्थ किया है "सब से उत्तम मुक्ति स्वरूप संसार से पृथक्"। इस प्रकार "ऊर्ध्वः" शब्द का प्रयोग महर्षि ने आध्यात्मिक ऊंचाई के लिए भी किया है।] [१. ऊर्ध्वा= उरु+अध्वा= विस्तृतमार्ग, बड़ा मार्ग, अभ्युदय से ऊंचा या बड़ा निःश्रेयस मार्ग।]