अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 16
वि॒षं गवां॑ यातु॒धाना॑ भरन्ता॒मा वृ॑श्चन्ता॒मदि॑तये दु॒रेवाः॑। परै॑णान्दे॒वः स॑वि॒ता द॑दातु॒ परा॑ भा॒गमोष॑धीनां जयन्ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒षम् । गवा॑म् । या॒तु॒ऽधाना॑: । भ॒र॒न्ता॒म् । आ । वृ॒श्च॒न्ता॒म् । अदि॑तये । दु॒:ऽएवा॑ । परा॑ । ए॒ना॒न् । दे॒व: । स॒वि॒ता । द॒दा॒तु॒ । परा॑ । भा॒गम् । ओष॑धीनाम् । ज॒य॒न्ता॒म् ॥३.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
विषं गवां यातुधाना भरन्तामा वृश्चन्तामदितये दुरेवाः। परैणान्देवः सविता ददातु परा भागमोषधीनां जयन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठविषम् । गवाम् । यातुऽधाना: । भरन्ताम् । आ । वृश्चन्ताम् । अदितये । दु:ऽएवा । परा । एनान् । देव: । सविता । ददातु । परा । भागम् । ओषधीनाम् । जयन्ताम् ॥३.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 16
भाषार्थ -
(यातुधानाः) यातना देने वाले (गवाम्) गौओं के (विषम्) विष अर्थात मूत्रजल को (भरन्ताम्) प्राप्त करें, और (दुरेवाः) ये दुष्टगति वाले (अदितये) पृथिवी के लिये (आ वृश्चन्ताम्) छिन्न-भिन्न कर दिये जाय। (सविता देवः) सर्वप्रेरक देव अर्थात् सम्राट् (एनान्) इन्हें (परा ददातु) निरस्त कर दे, देशनिकाला दे दे, (ओषधीनाम्) व्रीहि-यव आदि ओषधियों के (भागम्) भाग को (पराजयन्ताम्) वे हार जांय अर्थात् उससे भागरहित हो जॉय१, वञ्चित हो जाय।
टिप्पणी -
[विषम् उदकनाम (निघं १।१२)। यातुधानों को गौ के दूध के स्थान में गोमूत्र२ रूपी जल पिलाना चाहिये। तथा पृथिवीवासियों के भले के लिये इन दुष्टों को मृत्युदण्ड देना चाहिये, तथा देशनिकाले का दण्ड देना चाहिये, तथा अन्न से वञ्चित कर इन्हें मरने देना चाहिये। व्याख्येय मन्त्र में “सविता देव” का अर्थ है सर्वप्रेरक सम्राट्। षू प्रेरणे (तुदादिः)]। [१. तथा रुग्णावस्था में औषधोपचार से वञ्चित कर दिये जाय। २. गोमूत्र शोधक तथा औषध रूप भी है। इसे हिन्दू पञ्चगव्य के अङ्गरूप में भी देते हैं। गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ में चक्षूरोग में इसे कई वर्षों तक प्रयुक्त किया जाता रहा है। तथा देखो मन्त्र १७ की भावना, दण्डरूप में गोदुग्ध से उसे वञ्चित रखने को।]