अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 10
नृ॒चक्षा॒ रक्षः॒ परि॑ पश्य वि॒क्षु तस्य॒ त्रीणि॒ प्रति॑ शृणी॒ह्यग्रा॑। तस्या॑ग्ने पृ॒ष्टीर्हर॑सा शृणीहि त्रे॒धा मूलं॑ यातु॒धान॑स्य वृश्च ॥
स्वर सहित पद पाठनृ॒ऽचक्षा॑: । रक्ष॑: । परि॑ । प॒श्य॒ । वि॒क्षु । तस्य॑ । त्रीणि॑ । प्रति॑ । शृ॒णी॒हि॒ । अग्रा॑ । तस्य॑ । अ॒ग्ने॒ । पृ॒ष्टी: । हर॑सा । शृ॒णी॒हि॒ । त्रे॒धा । मूल॑म् । या॒तु॒ऽधान॑स्य । वृ॒श्च॒ ॥३.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
नृचक्षा रक्षः परि पश्य विक्षु तस्य त्रीणि प्रति शृणीह्यग्रा। तस्याग्ने पृष्टीर्हरसा शृणीहि त्रेधा मूलं यातुधानस्य वृश्च ॥
स्वर रहित पद पाठनृऽचक्षा: । रक्ष: । परि । पश्य । विक्षु । तस्य । त्रीणि । प्रति । शृणीहि । अग्रा । तस्य । अग्ने । पृष्टी: । हरसा । शृणीहि । त्रेधा । मूलम् । यातुऽधानस्य । वृश्च ॥३.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (नृचक्षाः) प्रजाजनों पर दृष्टि रखने वाला तू (विक्षु) निज प्रजाजनों में [प्रविष्ट] (रक्षः) परकीय राक्षस प्रकृति वाले व्यक्ति को (परि पश्य) ढूंढ। (तस्य) उसके (त्रीणि) तीन (अग्रा) अग्र अर्थात् उपर के भागों को (प्रति शृणीहि) एक-एक करके काट डाल ! (तस्य) उसकी (पृष्टीः) छाती और पीठ के अङ्गों को (हरसा) संहारी शस्त्र द्वारा (शृणीहि) काट डाल, (यातुधानस्य) यातना देने वाले के (मूलम्) मूलभाग को (त्रेधा) तीन भागों में (वृश्च) छिन्न-भिन्न कर।
टिप्पणी -
[मन्त्र में उग्र दण्ड का विधान है। उग्रदण्ड, राष्ट्रव्यवस्था को स्थिररूप में बनाए रखता है। नर्मदण्ड प्रजा को भ्रष्टाचारी बनाता है। किसी उग्र अपराधी को उग्रदण्ड दे देने पर प्रजा भ्रष्टाचार से बची रहती है। उपरि भाग के तीन अग्र हैं, सिर तथा दो बाहुएं। मूल का अर्थ होता है जड़। वृक्ष का मूल अर्थात् जड़ नीचे की ओर होती है। अतः यातुधान के मूल का अभिप्राय है शरीर के निचले अङ्ग। ये तीन हैं। घुटनों से ऊपर के अङ्ग हैं ऊरू; घुटनों से नीचे के अङ्ग हैं टांगें अर्थात् जङ्घाएं तथा पाद। धड़ के अङ्गों को काटने का पृथक् विधान हुआ है "पृष्टीः" शब्द द्वारा। इस प्रकार ये नीचे के विविध अंग हैं। सिर, पृष्टीः और बाहुओं से नीचे हैं।]