अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 20
प॒श्चात्पु॒रस्ता॑दध॒रादु॒तोत्त॒रात्क॒विः काव्ये॑न॒ परि॑ पाह्यग्ने। सखा॒ सखा॑यम॒जरो॑ जरि॒म्णे अग्ने॒ मर्ताँ॒ अम॑र्त्य॒स्त्वं नः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप॒श्चात् । पु॒रस्ता॑त् । अ॒ध॒रात् । उ॒त । उ॒त्त॒रात् । क॒वि: । काव्ये॑न । परि॑ । पा॒हि॒ । अ॒ग्ने॒ । सखा॑ । सखा॑यम् । अ॒जर॑: । ज॒रि॒म्णे । अग्ने॑ । मर्ता॑न् । अम॑र्त्य: । त्वम् । न॒: ॥३.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
पश्चात्पुरस्तादधरादुतोत्तरात्कविः काव्येन परि पाह्यग्ने। सखा सखायमजरो जरिम्णे अग्ने मर्ताँ अमर्त्यस्त्वं नः ॥
स्वर रहित पद पाठपश्चात् । पुरस्तात् । अधरात् । उत । उत्तरात् । कवि: । काव्येन । परि । पाहि । अग्ने । सखा । सखायम् । अजर: । जरिम्णे । अग्ने । मर्तान् । अमर्त्य: । त्वम् । न: ॥३.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 20
भाषार्थ -
(अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (कविः) वेदकाव्य का कवि अर्थात् विद्वान् तू (काव्येन) वेदकाव्य की शिक्षा द्वारा (पश्चात्) पश्चिम से, (पुरस्तात्) पूर्व से, (अधरात्) दक्षिण से, (उत उत्तरात्) और उत्तर से (परि पाहि) सब ओर से हमारी रक्षा कर। (सखा) जैसे सखा (सखायम्) सखा की [पाति] रक्षा करता है, तथा (अजरः) जरारहित [यूवा पुत्र] (जरिम्णे) बूढ़े पिता के लिये पालक होता है, वैसे (अमर्त्यः त्वम्) चिरजीवी तू (नः मर्तान्) हम मर्त्यों को (परिपाहि) सब ओर से सुरक्षित कर। .
टिप्पणी -
[(ऋग्वेद १०।८७।२१) में "अग्ने" के स्थान में “राजन्” पाठ है। इस से प्रतीत होता है कि ये मन्त्र राजनैतिक१ अर्थपरक हैं। अमर्त्यः= प्रधानमन्त्री "अमर्त्य-सा" है, क्योंकि रक्षकवर्ग सदा सब ओर से उसकी रक्षा करता है। और प्रजाजन "मर्त" हैं, यतः उपद्रवों और आक्रान्ताओं के शिकार के होते हैं।] [१. इसलिये सूक्त में भिन्न-भिन्न अपराधों में भिन्न-भिन्न दण्ड विधान हुआ है, जो कि नियम द्वारा मिलता है।]