अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 23
वि॒षेण॑ भङ्गु॒राव॑तः॒ प्रति॑ स्म र॒क्षसो॑ जहि। अग्ने॑ ति॒ग्मेन॑ शो॒चिषा॒ तपु॑रग्राभिर॒र्चिभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒षेण॑ । भ॒ङ्गु॒रऽव॑त: । प्रति॑ । स्म॒ । र॒क्षस॑: । ज॒हि॒ । अग्ने॑। ति॒ग्मेन॑ । शो॒चिषा॑ । तपु॑:ऽअग्राभि: । अ॒र्चिऽभि॑: ॥३.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
विषेण भङ्गुरावतः प्रति स्म रक्षसो जहि। अग्ने तिग्मेन शोचिषा तपुरग्राभिरर्चिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठविषेण । भङ्गुरऽवत: । प्रति । स्म । रक्षस: । जहि । अग्ने। तिग्मेन । शोचिषा । तपु:ऽअग्राभि: । अर्चिऽभि: ॥३.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 23
भाषार्थ -
(अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (विषेण) विष प्रयोग द्वारा (भङ्गुरावतः)१ भग्नस्वभाव वाले या भङ्गुर-चित्तवृत्तियों वाले (रक्षसः) राक्षसों में से (प्रति) प्रत्येक का (जहि) हनन कर, (तिग्मेन) तथा तीक्ष्ण (शोचिषाः) दीप्ति द्वारा, [जहि] [इनका हनन कर] तथा (तपुरग्राभिः) तपते अग्रभागों वाले (अर्चिभिः) अर्चि नामक अस्त्रों द्वारा [जहि] [इन का हनन कर]।
टिप्पणी -
[तीन साधनों द्वारा राक्षसस्वभाव वालों के विनाश का वर्णन मन्त्र में हुआ है। (१) विषप्रयोग द्वारा। (२) आंखों पर तीक्ष्ण प्रकाश डाल कर इन्हें चौंधिया कर। (३) अस्त्रों के अग्रभाग में तपाने वाले आग्नेय-विस्फोटक लगाकर। ऋग्वेद (१०।८७।२३) में 'अर्चिभिः' के स्थान में 'ऋष्टिभिः' का प्रयोग हुआ है। ऋष्टिः= आयुध (अथर्व० ८।३।७)। तथा “शतम् ऋष्टीः अयस्मयीः', (अथर्व ४।३७।८), लोहनिर्मित सैकड़ों ऋष्टियां, आयुध]। [१. अथवा आसानी से भग्न हो जाने वाले]