अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 7/ मन्त्र 24
यु॒ज्यमा॑नो वैश्वदे॒वो यु॒क्तः प्र॒जाप॑ति॒र्विमु॑क्तः॒ सर्व॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ज्यमा॑न: । वै॒श्व॒ऽदे॒व: । यु॒क्त: । प्र॒जाऽप॑ति: । विऽमु॑क्त: । सर्व॑म् ॥१२.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
युज्यमानो वैश्वदेवो युक्तः प्रजापतिर्विमुक्तः सर्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठयुज्यमान: । वैश्वऽदेव: । युक्त: । प्रजाऽपति: । विऽमुक्त: । सर्वम् ॥१२.२४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 7; मन्त्र » 24
भाषार्थ -
(युज्यमानः) जोता जाता हुआ [बैल ] (वैश्वदेवः) विश्वदेवों का है, (युक्तः) जुता हुआ (प्रजापतिः) प्रजापति है, (विमुक्तः) विमुक्त हुआ (सर्वम्) आत्मना "सर्वरूप" है।
टिप्पणी -
[(१) यह अर्थ गौ [बैल] की दृष्टि से है। जोता जाता हुआ बैल मानो [राष्ट्र के] सब देवों के लिये उपकारी है, दुधारू-गौओं के उत्पादन तथा भारवाही बछड़ों के उत्पादन द्वारा, कृषिकर्म द्वारा, खाद के लिये गोवर प्रदान द्वारा, तथा गोवंश की वृद्धि द्वारा। शकट में जुता हुआ बैल प्रजापति है, प्रजाओं का रक्षक है। शकट कार्य से विमुक्त हुआ आत्मना "सर्वरूप" है। भारोद्वहन आदि कार्यों से विमुक्त हुआ निज "सर्वरूप" में है। युज्यमानः और युक्तः के सदृश "वियुक्तः" प्रयोग चाहिये था। परन्तु इसके स्थान में "विमुक्तः१" का प्रयोग कर जीवन्मुक्तावस्था का स्मरण कराया है। मानो आत्मना "सर्वरूप" अवस्था में बैल ऐसा सुख अनुभव करता है जैसे कि जीवन्मुक्त-मोक्षाधिकारी जीवन्मुक्तावस्था में मोक्षानन्द का अनुभव करता है।शकट-वहन द्वारा बैल के "अनड्वान्" स्वरूप को द्योतित किया है। अनड्वान्= अनः शकटम् बहतीति। (२) परमेश्वर भी अनड्वान् है, अनः [विश्वरूपम्] शकटं वहतीति। देखो अथर्व० ९।६। पर्याय ४, मन्त्र ८ की व्याख्या। परमेश्वर, ब्रह्माण्ड की रचना के निमित्त प्रथम, ब्रह्माण्ड-शकट के साथ निज सम्बन्धार्थ आलोचना या ईक्षण करता है "स ऐक्षत लोकान्तु सृजा इति ॥१॥ स इमान् लोकान् सृजत१ ॥२॥ यह आलोचना या ईक्षण परमेश्वर का "युज्यमान" स्वरूप है। परमेश्वर निज आलोचनानुरूप जब ब्रह्माण्ड की रचना प्रारम्भ कर देता है तब यह उसका "युक्त" स्वरूप है। ब्रह्माण्ड की रचना के पश्चात् जब परमेश्वर ब्रह्माण्ड का प्रलय करता है तब वह परमेश्वर का "विमुक्त" स्वरूप है। प्रलय में ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध से विमुक्त हुआ परमेश्वर केवल सब प्रकार से "सर्वात्मस्वरूप" में स्थित होता है। इस स्वरूप को "सर्वम्" कहा है, तथा समग्र-ब्रह्माण्ड प्रलय में परमेश्वर में लीन सा हो जाता है, इस लिये भी परमेश्वर सर्वरूप है। परमेश्वर के सम्बन्ध में विश्वेदेव हैं सभी द्युतिमान् पदार्थ, सूर्य, ग्रह, उपग्रह तथा नक्षत्र और तारामण्डल। परमेश्वर प्रजापति है जब कि वह "युक्त" हुआ प्रजाओं को पैदा कर देता है। प्रजाओं की सत्ता के होने पर ही परमेश्वर प्रजाओं का पति कहलाएगा, प्रजाओं की असत्ता में नहीं। पूर्व के मन्त्रों में विश्व के अङ्गों में ताद्रूप्य या तादात्म्य दर्शाया है, और मन्त्र २४ में सम्पूर्णविश्व और सम्पूर्ण गौ [बैल] में ताद्रूप्य या तादात्म्य दर्शाया है। मन्त्रों में विश्व को गोरूप कहा है, गौ को विश्वरूप नहीं। गौ सर्वोपकारी है जैसे कि मन्त्र २४ की व्याख्या में दर्शा दिया है। इसी लिये गौ मातृवत् पूजनीया है। परमेश्वर द्वारा रचा “विश्व" भी गोसदृश महोपकारी है। यह हमारे और सब प्राणियों के लिये भोग अपवर्ग के लिये है। भोग और अपवर्ग, इन दोनों द्वारा प्राणियों को सुख और अपवर्ग की प्राप्ति होती है। अतः शिक्षा दी गई है कि जैसे हम गौ की पूजा और सेवा करते हैं उसी प्रकार हमें महोपकारी परमेश्वर की भी पूजा और सेवा करनी चाहिये।[(१) एतरेय उप० खण्ड १। कण्डिका १, २॥ "ऐक्षत लोकान्तु सृजा इति", यह "युज्यमात" स्वरूप है, और "स इमान् लोकानसृजत" यह “युक्त" स्वरूप है।]