अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 7/ मन्त्र 16
दे॑वज॒ना गुदा॑ मनु॒ष्या आ॒न्त्राण्य॒त्रा उ॒दर॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒व॒ऽज॒ना: । गुदा॑: । म॒नु॒ष्या᳡: । आ॒न्त्राणि॑ । अ॒त्रा: । उ॒दर॑म् ॥१२.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
देवजना गुदा मनुष्या आन्त्राण्यत्रा उदरम् ॥
स्वर रहित पद पाठदेवऽजना: । गुदा: । मनुष्या: । आन्त्राणि । अत्रा: । उदरम् ॥१२.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 7; मन्त्र » 16
भाषार्थ -
(देवजनाः) उन्मत्त जन हैं (गुदाः) गौ की गुदा के अवयव, (मनुष्याः) मनुष्य हैं (आन्त्राणि) गौ का पक्वाशय, (अत्राः) अन्य अदनकर्ता प्राणी हैं (उदरम्) गौ का पेट।
टिप्पणी -
[देव पद "दिव्" धातु का रूप है। दिव् का अर्थ "मद" भी होता है (दिवादिः)। अतः देवजनाः= उन्मत्त जन। ये गौ के गुदा के समान हैं। मनुष्याः= मननशील जन। यथा "मनुष्याः = मत्त्वा कर्माणि सीव्यन्ति" (निरुक्त ३।२।७)। मननपूर्वक कर्मपट बुनने या सीनेवाले व्यक्ति अपने काम में परिपक्व प्रज्ञा वाले होते हैं, अतः इन्हें आन्त्राणि कहा है, आन्तों में परिपक्व अन्न होता है। मनुष्याः= मनु (मत्त्वा) + स्याः (सीव्यन्ति) देवजनों तथा मनुष्यों से अतिरिक्त प्राणी केवल भोजनपरायण होते हैं, "अत्राः" होते हैं [अद् + राः], अतः इन्हें उदर कहा है।]