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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 58
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    सूर्य॑रश्मि॒र्हरि॑केशः पु॒रस्ता॑त् सवि॒ता ज्योति॒रुद॑याँ॒२ऽअज॑स्रम्। तस्य॑ पू॒षा प्र॑स॒वे या॑ति वि॒द्वान्त्स॒म्पश्य॒न् विश्वा॒ भुव॑नानि गो॒पाः॥५८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य॑रश्शि॒मरिति॒ सूर्य्य॑ऽरश्मिः। हरि॑केश॒ इति॒ हरि॑ऽकेशः। पु॒रस्ता॑त्। स॒वि॒ता। ज्योतिः॑। उत्। अ॒या॒न्। अज॑स्रम्। तस्य॑। पू॒षा। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। या॒ति॒। वि॒द्वान्। सं॒पश्य॒न्निति॑ स॒म्ऽपश्य॑न्। विश्वा॑। भुव॑नानि। गो॒पाः ॥५८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यरश्मिर्हरिकेशः पुरस्तात्सविता ज्योतिरुदयाँऽअजस्रम् । तस्य पूषा प्रसवे याति विद्वान्त्सम्पश्यन्विश्वा भुवनानि गोपाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्यरश्शिमरिति सूर्य्यऽरश्मिः। हरिकेश इति हरिऽकेशः। पुरस्तात्। सविता। ज्योतिः। उत्। अयान्। अजस्रम्। तस्य। पूषा। प्रसव इति प्रऽसवे। याति। विद्वान्। संपश्यन्निति सम्ऽपश्यन्। विश्वा। भुवनानि। गोपाः॥५८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 58
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जो (पुरस्तात्) पहिले से (सविता) सूर्यलोक (ज्योतिः) प्रकाश को देता है, जिसमें (हरिकेशः) हरे रंग वाली (सूर्यरश्मिः) सूर्य्य की किरण वर्त्तमान हैं, जो (प्रसवे) उत्पन्न हुए जगत् में (अजस्रम्) निरन्तर (पूषा) पुष्टि करने वाला है, जिसको (विद्वान्) विद्यायुक्त पुरुष (संपश्यन्) अच्छे प्रकार देखता हुआ उसकी विद्या को (याति) प्राप्त होता है, (तस्य) उसके सकाश से (गोपाः) संसार की रक्षा करने वाले पृथिवी आदि लोक और तारागण भी (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोक-लोकान्तरों को (उदयान्) प्रकाशित करते हैं, वह सूर्य्यमण्डल अतिप्रकाशमय है, यह तुम जानो॥५८॥

    भावार्थ - जो यह सूर्य्यलोक है, उसके प्रकाश में श्वेत और हरी रङ्ग-विरङ्ग अनेक किरणें हैं, जो सब लोकों की रक्षा करती हैं, इसी से सब की सब प्रकार से सदा रक्षा होती है, यह जानने योग्य है॥५८॥

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