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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 98
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अ॒भ्यर्षत सुष्टु॒तिं गव्य॑मा॒जिम॒स्मासु॑ भ॒द्रा द्रवि॑णानि धत्त। इ॒मं य॒ज्ञं न॑यत दे॒वता॑ नो घृ॒तस्य॒ धारा॒ मधु॑मत्पवन्ते॥९८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि। अ॒र्ष॒त॒। सु॒ष्टु॒तिम्। सु॒स्तु॒तिमिति॑ सुऽस्तु॒तिम्। गव्य॑म्। आ॒जिम्। अ॒स्मासु॑। भ॒द्रा। द्रवि॑णानि। ध॒त्त॒। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। न॒य॒त॒। दे॒वता॑। नः॒। घृ॒तस्य॑। धाराः॑। मधु॑म॒दिति॒ मधु॑ऽमत्। प॒व॒न्ते॒ ॥९८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभ्यर्षत सुष्टुतिङ्गव्यमाजिमस्मासु भद्रा द्रविणानि धत्त । इमँयज्ञन्नयत देवता नो घृतस्य धारा मधुमत्पवन्ते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। अर्षत। सुष्टुतिम्। सुस्तुतिमिति सुऽस्तुतिम्। गव्यम्। आजिम्। अस्मासु। भद्रा। द्रविणानि। धत्त। इमम्। यज्ञम्। नयत। देवता। नः। घृतस्य। धाराः। मधुमदिति मधुऽमत्। पवन्ते॥९८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 98
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    पदार्थ -
    हे विवाहित स्त्रीपुरुषो! तुम उत्तम वर्त्ताव से (सुष्टुतिमम्) अच्छी प्रशंसा तथा (आजिम्) जिस से उत्तम कामों को जानते हैं, उस संग्राम और (गव्यम्) वाणी में होने वाले बोध वा गौ में होने वाले दूध, दही, घी आदि को (अभ्यर्षत) सब ओर से प्राप्त होओ (देवता) विद्वान् जन (अस्मासु) हम लोगों में (भद्रा) अति आनन्द कराने वाले (द्रविणानि) धनों को (धत्त) स्थापित करो (नः) हम लोगों को (इमम्) इस (यज्ञम्) प्राप्त होने योग्य गृहाश्रम-व्यवहार को (नयत) प्राप्त करावो, जो (घृतस्य) प्रकाशित विज्ञान से युक्त (धाराः) अच्छी शिक्षायुक्त वाणी विद्वानों को (मधुमत्) मधुर आलाप जैसे हो वैसे (पवन्ते) प्राप्त होती हैं, उन वाणियों को हम को प्राप्त कराओ॥९८॥

    भावार्थ - स्त्रीपुरुषों को चाहिये कि परस्पर मित्र होकर संसार में विख्यात होवें, जैसे अपने लिये वैसे औरों के लिये भी अत्यन्त सुख करने वाले धनों को उन्नतियुक्त करें, परम पुरुषार्थ से गृहाश्रम की शोभा करें और वेदविद्या का निरन्तर प्रचार करें॥९८॥

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