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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 50
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    उदे॑नमुत्त॒रां न॒याग्ने॑ घृतेनाहुत। रा॒यस्पोषे॑ण॒ सꣳसृ॑ज प्र॒जया॑ च ब॒हुं कृ॑धि॥५०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्। ए॒न॒म्। उ॒त्त॒रामित्यु॑त्ऽत॒राम्। न॒य॒। अग्ने॑। घृ॒ते॒न॒। आ॒हु॒तेत्या॑ऽहुत। रा॒यः। पोषे॑ण। सम्। सृ॒ज॒। प्र॒जयेति॑ प्र॒ऽजया॑। च॒। ब॒हुम्। कृ॒धि॒ ॥५० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदेनमुत्तरान्नयाग्ने घृतेनाहुत रायस्पोषेण सँ सृज प्रजया च बहुङ्कृधि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। एनम्। उत्तरामित्युत्ऽतराम्। नय। अग्ने। घृतेन। आहुतेत्याऽहुत। रायः। पोषेण। सम्। सृज। प्रजयेति प्रऽजया। च। बहुम्। कृधि॥५०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 50
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    पदार्थ -
    हे (घृतेन) घृत से (आहुत) तृप्ति को प्राप्त हुए (अग्ने) प्रकाशयुक्त सेनापति तू (एनम्) इस जीतने वाले वीर को (उत्तराम्) जिससे उत्तमता से संग्राम को तरें, विजय को प्राप्त हुई उस सेना को (उत्, नय) उत्तम अधिकार में पहुंचा (रायः, पोषेण) राजलक्ष्मी की पुष्टि से (सम्, सृज) अच्छे प्रकार युक्त कर (च) और (प्रजया) बहुत सन्तानों से (बहुम्) अधिकता को प्राप्त (कृधि) कर॥५०॥

    भावार्थ - जो सेना का अधिकारी वा भृत्य धर्मयुक्त युद्ध से दुष्टों को जीते, उसका सभा, सेना के पति धनादिकों से बहुत प्रकार सत्कार करें॥५०॥

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