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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 61
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः । सुतजेता ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    इन्द्रं॒ विश्वा॑ऽअवीवृधन्त्समु॒द्रव्य॑चसं॒ गिरः॑। र॒थी॒त॑मꣳ र॒थीनां॒ वाजा॑ना॒ सत्प॑तिं॒ पति॑म्॥६१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म्। विश्वाः॑। अ॒वी॒वृ॒ध॒न्। स॒मु॒द्रव्य॑चस॒मिति॑ समु॒द्रऽव्य॑चसम्। गिरः॑। र॒थीत॑मम्। र॒थीत॑म॒मिति॑ र॒थिऽत॑मम्। र॒थीना॑म्। र॒थिना॒मिति॑ र॒थिना॑म्। वाजा॑नाम्। सत्प॑ति॒मिति॒ सत्ऽप॑तिम्। पति॑म् ॥६१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रँविश्वाऽअवीवृधन्त्समुद्रव्यचसङ्गिरः । रथीतमँ रथीनाँवाजानाँ सत्पतिम्पतिम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम्। विश्वाः। अवीवृधन्। समुद्रव्यचसमिति समुद्रऽव्यचसम्। गिरः। रथीतमम्। रथीतममिति रथिऽतमम्। रथीनाम्। रथिनामिति रथिनाम्। वाजानाम्। सत्पतिमिति सत्ऽपतिम्। पतिम्॥६१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 61
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! तुम जिस (समुद्रव्यचसम्) अन्तरिक्ष की व्याप्ति के समान व्याप्ति वाले (रथीनाम्) प्रशंसायुक्त सुख के हेतु पदार्थ वालों में (रथीतमम्) अत्यन्त प्रशंसित सुख के हेतु पदार्थों से युक्त (वाजानाम्) ज्ञानी आदि गुणी जनों के (पतिम्) स्वामी (सत्पतिम्) विनाशरहित वा विनाशरहित कारण और जीवों के पालनेहारे (इन्द्रम्) परमात्मा को (विश्वाः) समस्त (गिरः) वाणी (अवीवृधन्) बढ़ाती अर्थात् विस्तार से कहती हैं, उस परमात्मा की निरन्तर उपासना करो॥६१॥

    भावार्थ - सब मनुष्यों को चाहिये कि सब वेद जिसकी प्रशंसा करते, योगीजन जिसकी उपासना करते और मुक्त पुरुष जिसको प्राप्त होकर आनन्द भोगते हैं, उसी को उपासना के योग्य इष्टदेव मानें॥६१॥

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