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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 93
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    ए॒ताऽअ॑र्षन्ति॒ हृद्या॑त् समु॒द्राच्छ॒तव्र॑जा रि॒पुणा॒ नाव॒चक्षे॑। घृ॒तस्य॒ धारा॑ऽअ॒भि चा॑कशीमि हिर॒ण्ययो॑ वेत॒सो मध्य॑ऽआसाम्॥९३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ताः। अ॒र्ष॒न्ति॒। हृद्या॑त्। स॒मु॒द्रात्। श॒तव्र॑जा॒ इति॑ श॒तऽव्र॑जाः। रि॒पुणा॑। न। अ॒व॒चक्ष॒ इत्य॑ऽव॒चक्षे॑। घृ॒तस्य॑। धाराः॑। अ॒भि। चा॒क॒शी॒मि॒। हि॒र॒ण्ययः॑। वे॒त॒सः। मध्ये॑। आ॒सा॒म् ॥९३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एताऽअर्षन्ति हृद्यात्समुद्राच्छतव्रजा रिपुणा नावचक्षे । घृतस्य धाराऽअभिचाकशीमि हिरण्ययो वेतसो मध्यऽआसाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एताः। अर्षन्ति। हृद्यात्। समुद्रात्। शतव्रजा इति शतऽव्रजाः। रिपुणा। न। अवचक्ष इत्यऽवचक्षे। घृतस्य। धाराः। अभि। चाकशीमि। हिरण्ययः। वेतसः। मध्ये। आसाम्॥९३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 93
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    पदार्थ -
    जो (रिपुणा) शत्रु चोर से (न, अवचक्षे) न काटने योग्य (शतव्रजाः) सैकड़ों जिनके मार्ग हैं, (एताः) वे वाणी (हृद्यात्, समुद्रात्) हृदयाकाश से (अर्षन्ति) निकलती हैं, (आसाम्) इन वैदिक धर्मयुक्त वाणियों के (मध्ये) बीच जो अग्नि में (घृतस्य) घी की (धाराः) धाराओं के समान मनुष्यों में गिरी हुई प्रकाशित होती हैं, उनकी (हिरण्ययः) तेजस्वी (वेतसः) अतिसुन्दर मैं (अभि, चाकशीमि) सब ओर से शिक्षा करता हूं॥९३॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे उपदेशक विद्वान् लोग जो वाणी पवित्र, विज्ञानयुक्त, अनेक मार्गों वाली शत्रुओं से अखण्ड्य और घी का प्रवाह अग्नि को जैसे उत्तेजित करता है, वैसे श्रोताओं को प्रसन्न करने वाली हैं, उन वाणियों को प्राप्त होते हैं, वैसे सब मनुष्य अच्छे यत्न से इन को प्राप्त होवें॥९३॥

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