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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
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    स॒मु॒द्रस्य॒ त्वाव॑क॒याग्ने॒ परि॑व्ययामसि। पा॒व॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳ शि॒वो भ॑व॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मु॒द्रस्य॑। त्वा॒। अव॑कया। अग्ने॑। परि॑। व्य॒या॒म॒सि॒। पा॒व॒कः। अ॒स्मभ्य॑म्। शि॒वः। भ॒व॒ ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समुद्रस्य त्वावकयाग्ने परि व्ययामसि । पावकोऽअस्मभ्यँशिवो भव ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    समुद्रस्य। त्वा। अवकया। अग्ने। परि। व्ययामसि। पावकः। अस्मभ्यम्। शिवः। भव॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 4
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    पदार्थ -
    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वी सभापते! जैसे हम लोग (समुद्रस्य) आकाश के बीच (अवकया) जिससे रक्षा करते हैं, उस क्रिया के साथ वर्त्तमान (त्वा) आपको (परि, व्ययामसि) सब ओर से प्राप्त होते हैं, वैसे (पावकः) पवित्रकर्त्ता आप (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (शिवः) मङ्गलकारी (भव) हूजिये॥४॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य लोग समुद्र के जीवों की रक्षा कर सुखी करते हैं, वैसे धर्मात्मा रक्षक सभापति अपनी प्रजाओं की रक्षा कर निरन्तर सुखी करें॥४॥

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