यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 4
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भुरिगार्षी गायत्री
स्वरः - षड्जः
137
स॒मु॒द्रस्य॒ त्वाव॑क॒याग्ने॒ परि॑व्ययामसि। पा॒व॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳ शि॒वो भ॑व॥४॥
स्वर सहित पद पाठस॒मु॒द्रस्य॑। त्वा॒। अव॑कया। अग्ने॑। परि॑। व्य॒या॒म॒सि॒। पा॒व॒कः। अ॒स्मभ्य॑म्। शि॒वः। भ॒व॒ ॥४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समुद्रस्य त्वावकयाग्ने परि व्ययामसि । पावकोऽअस्मभ्यँशिवो भव ॥
स्वर रहित पद पाठ
समुद्रस्य। त्वा। अवकया। अग्ने। परि। व्ययामसि। पावकः। अस्मभ्यम्। शिवः। भव॥४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
सभापतिना किं कार्यमित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे अग्ने! यथा वयं समुद्रस्यावकया सह वर्त्तमानं त्वा परिव्ययामसि, तथा पावकस्त्वमस्मभ्यं शिवो भव॥४॥
पदार्थः
(समुद्रस्य) अन्तरिक्षस्य मध्ये (त्वा) त्वाम् (अवकया) यया अवन्ति रक्षन्ति तया क्रियया (अग्ने) अग्निवद् वर्त्तमान सभापते (परि) सर्वतः (व्ययामसि) प्राप्ताः स्मः (पावकः) पवित्रकारकः (अस्मभ्यम्) (शिवः) मङ्गलकारी (भव)॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मनुष्याः समुद्रस्थान् जन्तून् रक्षित्वा सुखयन्ति, तथा धार्मिको रक्षकः सभेशः स्वकीयाः प्रजाः संरक्ष्य सततं सुखयेत्॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
सभापति को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वी सभापते! जैसे हम लोग (समुद्रस्य) आकाश के बीच (अवकया) जिससे रक्षा करते हैं, उस क्रिया के साथ वर्त्तमान (त्वा) आपको (परि, व्ययामसि) सब ओर से प्राप्त होते हैं, वैसे (पावकः) पवित्रकर्त्ता आप (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (शिवः) मङ्गलकारी (भव) हूजिये॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य लोग समुद्र के जीवों की रक्षा कर सुखी करते हैं, वैसे धर्मात्मा रक्षक सभापति अपनी प्रजाओं की रक्षा कर निरन्तर सुखी करें॥४॥
विषय
सैवाल के दृष्टान्त से राजा की रक्षा शक्ति का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्नि के समान शत्रुओं को भस्म करने हारे तेजस्विन् ! राजन् ! (समुद्रस्य अवकया ) समुद्र के भीतर जिस प्रकार 'अवका' नाम शैवाल से जिल प्रकार मेंडक जल जन्तु सुरक्षित रहते हैं उसी प्रकार समुद्र के समान गम्भीर जल के बीच में ( अवकया ) प्रजा के रक्षण करने की शक्ति से तुझे ( परि ) सब छोर से ( व्ययामसि ) विविध प्रकारों से हम प्रजाजन ही घेर लें । तू ( पावकः ) पवित्रकारक अग्नि के समान राष्ट्र को पवित्र करने वाला होकर ( अस्मभ्यम् ) हमारे लिये (शिवः भव) कल्याणकारी हो । शत० ९ । १ । २ । २०-२५ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भुरिगार्षी गायत्री । षड्जः ॥
विषय
समुद्र की अवका [रक्षा शक्ति]
पदार्थ
१. गत मन्त्र के अनुसार जीवन-निर्माण से शरीर का स्वास्थ्य ही नहीं, मनःस्वास्थ्य भी प्राप्त होता है। 'प्रसन्न मन' सर्वोत्तम रक्षण-साधन है। मन के प्रसन्न होने पर रोग भी शरीर में प्रवेश नहीं कर पाते। 'मनः प्रसाद' मनुष्य को सर्वोत्तम स्थिति प्राप्त कराता है, प्रभु जीव से कहते हैं हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! (त्वा) = तुझे (समुद्रस्य) = [स+मुद्] सदा प्रसन्नता के साथ रहनेवाले मन की (अवकया) = रक्षाशक्ति से (परिव्ययामसि) = चारों ओर से आच्छादित करते हैं। यह 'मनःप्रसाद' तुझे सब आधि-व्याधियों के आक्रमण से बचाएगा। २. (पावक:) = मनःप्रसाद के द्वारा अपने जीवन को पवित्र बनानेवाला तू (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (शिवः भव) = कल्याण करनेवाला बन। तू अपने जीवन से कभी किसी का अशुभ न कर ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-प्राप्ति के साधन निम्न हैं- १. मनः प्रसाद के द्वारा अपने को आधि-व्याधियों से बचाना। २. ज्ञान के द्वारा जीवन को पवित्र बनाना। ३. सभी का कल्याण करना।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसे जसे समुद्रातील जीवांचे रक्षण करून त्यांना सुखी करतात, तसेच धर्मात्मा रक्षक राजाने आपल्या प्रजेचे रक्षण करून त्यांना सदैव सुखी ठेवावे.
विषय
सभापतीने काय केले पाहिजे (त्याची कर्तव्यें) काय आहेत?) पुढील मंत्रात याविषयी कथन केले आहे –
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (अग्ने अग्नीप्रमाणे तेजस्वी असलेले सभापती महोदय, आम्ही (राष्ट्राचे नागरिक) (समुद्रस्य) आकाशामधे (अवकया) आपल्याकडून केलेल जाणारे जे रक्षणकर्म आहे (वायुसेनेद्वारे आपण राष्ट्राचा आकाश सुरक्षित व निर्भय केलेला आहे) त्या रक्षणकार्यमुळे आम्ही (त्या) आपणाकडे (परि व्ययामसि) निशंक मनाने येतो. (पावक:) पवित्र कार्य करणारे आपण देखील (अस्त्रभ्यम्) आमच्यासाठी (शिव:) कल्याणकारी (भव) व्हा. (आम्हाला आपल्या आश्रयाखाली सुरक्षित वाटते. आपण आमची ही कामना पूर्ण करा) ॥4॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे मनुष्य समुद्रातील (वा आकाशातील) प्राण्यांचे रक्षण करून त्यांना सुखी व निर्भय करतात, त्याप्रमाणे धर्मात्मा रक्षक सभापतीने (राजाने) आपल्या प्रजाजनांचे रक्षण करून त्यांना सदैव आनंदित ठेवले पाहिजे. ॥4॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O ruler, just as we, conversant with the knowledge of self-protection in space, approach thee from all sides, be thou our purifier and auspicious to us.
Meaning
Agni, brilliant power, we stand round and cover you as the shaivala grass of the sea. Cleanser and purifier of life, be good and gracious to us.
Translation
O fire divine, we encircle you with the vastness of water. May you be purifier and gracious to us. (1)
Notes
Avakayā,अवकाशेन , विस्तारेण, with the moss. (Mahidhara). anata, fatator, with the vastness. Parivyayamasi, परिवेष्टयाम:, encircle (you); surround you. Pāvakaḥ, शोधक:, purifier.
बंगाली (1)
विषय
সভাপতিনা কিং কার্য়মিত্যুপদিশ্যতে ॥
সভাপতিকে কী করা উচিত, এই বিষয়ে উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (অগ্নে) অগ্নিতুল্য তেজস্বী সভাপতে! যেমন আমরা (সমুদ্রস্য) আকাশের মধ্যে (অবকয়া) যদ্দ্বারা রক্ষা করেন সেই ক্রিয়া সহ বর্ত্তমান (ত্বা) আপনাকে (পরি, ব্যায়ামসি) সকল দিক দিয়া প্রাপ্ত হই সেইরূপ (পাবকাঃ) পবিত্র কর্ত্তা আপনি (অস্মভ্যম্) আমাদের জন্য (শিবঃ) মঙ্গলকারী (ভব) হউন ॥ ৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন মনুষ্যগণ সমুদ্রের জীবদিগের রক্ষা করিয়া সুখী করে সেইরূপ ধর্মাত্মা রক্ষক সভাপতি স্বীয় প্রজাদিগের রক্ষা করিয়া নিরন্তর সুখী করিবে ॥ ৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স॒মু॒দ্রস্য॒ ত্বাব॑ক॒য়াগ্নে॒ পরি॑ ব্যয়ামসি ।
পা॒ব॒কোऽঅ॒স্মভ্য॑ꣳ শি॒বো ভ॑ব ॥ ৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সমুদ্রস্যেত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিগার্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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