यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 9
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदार्षी गायत्री
स्वरः - षड्जः
78
स नः॑ पावक दीदि॒वोऽग्ने दे॒वाँ२ऽइ॒हा व॑ह। उप॑ य॒ज्ञꣳ ह॒विश्च॑ नः॥९॥
स्वर सहित पद पाठसः नः॒। पा॒व॒क॒। दी॒दि॒व इति॑ दीदि॒ऽवः। अग्ने॑। दे॒वान्। इ॒ह। आ। व॒ह॒। उप॑। य॒ज्ञम्। ह॒विः। च॒। नः॒ ॥९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नः पावक दीदिवो ग्ने देवाँ इहाऽवह । उप यज्ञँ हविश्च नः ॥
स्वर रहित पद पाठ
सः नः। पावक। दीदिव इति दीदिऽवः। अग्ने। देवान्। इह। आ। वह। उप। यज्ञम्। हविः। च। नः॥९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदेवाह॥
अन्वयः
हे पावक दीदिवोऽग्ने! स त्वं यथाऽयमग्निर्नो हविरावहति, तथेह यज्ञं देवांश्च न उपावह॥९॥
पदार्थः
(सः) विद्वान् (नः) अस्मभ्यम् (पावक) पवित्र (दीदिवः) तेजस्विन् शत्रुदाहक वा। दीदयतिर्ज्वलतिकर्मा॥ (निघं॰१.१६) अत्र तुजादीनाम् [अष्टा॰६.१.७] इत्यभ्यासस्य दीर्घः (अग्ने) सत्यासत्यविभाजक (देवान्) विदुषः (इह) (आ) (वह) (उप) (यज्ञम्) गृहाश्रमम् (हविः) हुतं द्रव्यम् (च) (नः) अस्मभ्यम्॥९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यादिरूपेणायमग्निः सर्वेभ्यो रसमूर्ध्वं नीत्वा वर्षयित्वा दिव्यानि सुखानि जनयति, तथैव विद्वांसो विद्यारसमुन्नतं कृत्वा सर्वाणि सुखानि जनयेयुः॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (पावक) पवित्र (दीदिवः) तेजस्विन् वा शत्रुदाहक (अग्ने) सत्यासत्य का विभाग करनेहारे विद्वन्! (सः) पूर्वोक्त गुण वाले आप जैसे यह अग्नि (नः) हमारे लिये अच्छे गुणों वाले (हविः) हवन किये सुगन्धित द्रव्य को प्राप्त करता है, वैसे (इह) इस संसार में (यज्ञम्) गृहाश्रम (च) और (देवान्) विद्वानों को (नः) हम लोगों के लिये (उप, आ, वह) अच्छे प्रकार समीप प्राप्त करें॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यह अग्नि अपने सूर्य्यादि रूप से सब पदार्थों से रस को ऊपर ले जा और वर्षा के उत्तम सुखों को प्रकट करता है, वैसे ही विद्वान् लोग विद्यारूप रस को उन्नति दे के सब सुखों का उत्पन्न करें॥९॥
विषय
राष्ट्र का धारण ।
भावार्थ
हे ( पावक ) पवित्रकारक कण्टकशोधक ! हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! एवं अग्नि के समान तेजस्विन् ! हे ( दीदिवि: ) शत्रुदाहक ! अग्नि के समान जाज्वल्यमान ! ( सः ) वह तू ही ( नः ) हमारे हित के लिये ( देवान् ) विद्वान् पुरुषों को ( इह ) इस राष्ट्र में ( आ वह ) प्राप्त करा, लाकर बसा और ( नः यज्ञं ) हमारे यज्ञरूप परस्पर की संगति से बने राष्ट्र को ( उप वह ) अपने ऊपर ले और ( नः हविः च उपवह ) और हमें अन्न भी प्राप्त करा । शत० ९ । १ । २ । ३० ।।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्देवता । निचृदार्षी गायत्री । षड्जः ॥
विषय
यज्ञ + हविः
पदार्थ
१. गत मन्त्र की भावना को ही अधिक विस्तृत करते हुए कहते हैं कि हे (अग्ने) = प्रगतिशील पावक अपने जीवन को पवित्र करनेवाले तथा (दीदिवः) = ज्ञान-ज्योति से देदीप्यमान मेधातिथे! (नः) = हमारा बना हुआ तू, अर्थात् प्रकृति में न फँसा हुआ तू इह = इस मानव जीवन में (देवान्) = दिव्य गुणों को (आवह) = समन्तात् प्राप्त करनेवाला बन । २. (च) = और (नः) = हमारा बना हुआ तू (यज्ञं उप) = सदा यज्ञों के समीप होनेवाला हो, अर्थात् तेरा जीवन यज्ञों से कभी दूर न हो। ३. और इस प्रकार (हविः) = तू हविरूप बन जा । अधिक-से-अधिक त्याग करनेवाला बन। [हु दानादनयोः] 'दानपूर्वक अदन' तो तेरा व्रत ही बन जाए। [तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः = त्यागपूर्वक उपभोग कर ] - इस उपदेश को तू अपने जीवन में मूर्तरूप दे। 'केवलाघो भवति केवलादी'-' अकेला खानेवाला पाप ही खाता है' तेरा सिद्धान्त बन जाए।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का प्यारा दिव्य गुणों को अपनाता है, यज्ञशील होता है और अपने जीवन को हविरूप बना देता है, सदा दानपूर्वक यज्ञशेष को ही खानेवाला होता है।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी आपल्या सूर्यरूपाने सर्व पदार्थांचा रस वर ओढून घेतो व जलाचा वर्षाव करून उत्तम सुख देतो तसे विद्वानांनी विद्यारूपी रसाची वाढ करून सुख निर्माण करावे.
विषय
पुन्हा तोच विषय पुढील मंत्रात ही कथित आहे –
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (पावक) पवित्र, (दीदिव:) तेजोमय अथवा रिपुदाहक आणि (अग्ने) सत्य-असत्याचे विवेचन व निर्णय करण्यास समर्थ असे हे विद्वान महाशय (स:) आपण वर वर्णन केलेल्या सद्गुणांनी संपन्न आहात. ज्याप्रमाणे हा भैतिक अग्नी (न:) आम्ही हवन केलेल्या उत्तम गुणयुक्त (औषधीयुक्त) (हवि:) हवनीय सुगंधित पदार्थांना प्राप्त करतो (स्वीकारतो) (द्रव्यांना भस्म करून त्यांचे गुण वाढवतो) त्याप्रमाणे (इह) आपणही या जगात (यज्ञम्) आमच्या गृहाश्रमरुप यज्ञाला (च) आणि (देवान्) त्यातील दिव्य सद्गुणांना व विद्वानांना (न:) आमच्याजवळ (उप, आ, वह) उत्तमप्रकारे आणा. (आमच्या स्वभावात उत्तम गुण येतील व आमच्या घरी विद्वज्जन येतील, असे करा.) ॥9॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे हा अग्नी आपल्या सूर्य आदी रुपाद्वारे (सूर्य अग्नीचाच एक रुप आहे) भूमीवरील सर्व पदार्थांचा रस वर आकाशात घेऊन जातो आणि त्याद्वारे वृष्टीसारखे श्रेष्ठ सुख भूमीला प्रदान करतो, तद्वत विद्वान लोकांनी विद्यारूप रसाचे ग्रहण करून त्यात वृद्धी करून सर्वांसाठी सुख निर्माण करावेत ॥9॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, pure, foe-destroyer, distinguisher of truth from untruth ; just as fire carries afar our fragrant oblations, so dost thou in this world bring hither for us domestic life and learned persons.
Meaning
Agni, power of light and lustre, purifier and sanctifier of life, you graciously call the noble powers of nature and humanity together here close to our yajna and let us all share the gifts of the fragrance of libations.
Translation
Adorable God, may you inspire enlightened devotees, who have assembled for work and worship, and impel them to make united efforts for good of the mankind. (1)
Notes
Didivaḥ, दीप्तिमान्, brilliant; shining.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তদেবাহ ॥
পুনরায় সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (পাবক) পবিত্র (দীদিবঃ) তেজস্বিন্ বা শত্রুদাহক (অগ্নে) সত্যাসত্যের বিভাগকারী বিদ্বান্! (সঃ) পূর্বোক্ত গুণযুক্ত আপনার মত এই অগ্নি (নঃ) আমাদের জন্য উত্তম গুণ বিশিষ্ট ব্যক্তিগণ (হবিঃ) হবনকৃত সুগন্ধিত দ্রব্যকে প্রাপ্ত করে সেইরূপ (ইহ) এই সংসারে (য়জ্ঞম্) গৃহাশ্রম (চ) এবং (দেবান্) বিদ্বান্দিগকে (নঃ) আমাদিগের জন্য (উপ, আ, বহ) উত্তম প্রকার সামীপ্য প্রাপ্ত করুক ॥ ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন এই অগ্নি স্বীয় সূর্য্যাদি রূপ দ্বারা সকল পদার্থ হইতে রসকে উপরে লইয়া বর্ষার উত্তম সুখকে প্রকট করে, সেইরূপ বিদ্বান্গণ বিদ্যারূপ রসের উন্নতি প্রদান করিয়া সকল সুখকে উৎপন্ন করুক ॥ ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স নঃ॑ পাবক দীদি॒বোऽগ্নে॑ দে॒বাঁ২ऽই॒হাऽऽ ব॑হ ।
উপ॑ য়॒জ্ঞꣳ হ॒বিশ্চ॑ নঃ ॥ ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
স ন ইত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদার্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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